बिहार की राजनीति में बाहुबली नेताओं का पतन: क्या खत्म हो गया उनका दौर?

बिहार चुनाव 2025: बाहुबली नेताओं का प्रभाव
Bihar Elections 2025: बिहार की राजनीतिक परिदृश्य में बाहुबली नेताओं का प्रभाव हमेशा से चर्चा का विषय रहा है। ये नेता अपनी आपराधिक छवि और मजबूत कनेक्शनों के माध्यम से अपनी स्थिति बनाते थे। 1990 के दशक से लेकर 2010 तक, बाहुबलियों का राज रहा, लेकिन अब उनका राजनीतिक प्रभाव तेजी से घट रहा है। एक समय था जब इन नेताओं की ताकत से बिहार की राजनीति की दिशा तय होती थी, लेकिन अब वे अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
आनंद मोहन का घटता राजनीतिक प्रभाव
बिहार के पूर्व सांसद आनंद मोहन का एक समय राजनीति में गहरा प्रभाव था। तिरहुत डिवीजन में उनकी पकड़ मजबूत थी, लेकिन अब उनकी राजनीतिक विरासत कमजोर पड़ चुकी है। उनकी पत्नी, लवली आनंद जेडीयू से सांसद हैं, लेकिन उनके बेटे चेतन आनंद का राजनीतिक भविष्य अब अनिश्चित है। जेडीयू से टिकट मिलने की संभावना भी कम नजर आ रही है।
अनंत सिंह की पत्नी की नई राजनीतिक चुनौती
मोकामा के बाहुबली नेता अनंत सिंह का राजनीतिक दबदबा भी घटता जा रहा है। जेल जाने के बाद, उनकी पत्नी नीलम देवी ने उनकी राजनीतिक विरासत को संभाला। हालाँकि, 2024 के चुनावों से पहले नीलम देवी का राजनीतिक रुख बदल गया है और वह अब जेडीयू के साथ नजर आ रही हैं। लेकिन क्या नीतीश कुमार उन्हें चुनावी मैदान में उतारेंगे? यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
शहाबुद्दीन की राजनीतिक विरासत का अंत
बिहार के पूर्व बाहुबली नेता शहाबुद्दीन का राजनीतिक प्रभाव अब समाप्त हो चुका है। उनकी पत्नी हिना शहाब ने आरजेडी से चुनाव लड़ा, लेकिन सफलता नहीं मिली। उनका राजनीतिक प्रभाव अब सिवान में भी कमजोर हो चुका है। हिना और उनके बेटे ओसामा ने आरजेडी जॉइन किया, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनावों में उनका टिकट मिलना मुश्किल लग रहा है।
सुरजभान सिंह का सिकुड़ता प्रभाव
सुरजभान सिंह का नाम भी बिहार की राजनीति में जाना जाता था। मोकामा से विधायक रहे सुरजभान पर हत्या का आरोप था, जिसके कारण वह चुनाव नहीं लड़ सकते। उनकी पत्नी वीणा देवी अब मोकामा सीट से चुनाव लड़ने की संभावना जता रही हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक राह अब पहले जैसी आसान नहीं है।
बिहार में बाहुबलियों का भविष्य
बिहार में बाहुबली नेताओं की राजनीति का भविष्य अब काफी चुनौतीपूर्ण हो गया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बाहुबलियों का प्रभाव अब समाप्त हो चुका है। उनके लिए वंशवाद को बढ़ावा देना अब उतना प्रभावी नहीं रहा है। राजनीतिक दल भी उनके परिवारों को टिकट देने में हिचकिचा रहे हैं। बाहुबलियों का नेटवर्क टूट चुका है और उनकी राजनीतिक ताकत भी कमजोर हो गई है।