बिहार चुनाव परिणाम: सुशासन की जीत और कांग्रेस की चुनौती
बिहार के चुनाव परिणामों का विश्लेषण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी मुख्यालय में आयोजित समारोह से पहले सोशल मीडिया पर एक वाक्य में बिहार के चुनाव परिणामों का सारांश दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि बिहार के लोगों ने सुशासन को चुना है। इस वाक्य में बिहार चुनाव की पूरी कहानी समाहित है। चुनाव के आरंभ से ही यह स्पष्ट था कि मतदाता नब्बे के दशक के ‘जंगल राज’ में लौटना चाहते हैं या सुशासन की निरंतरता बनाए रखना चाहते हैं।
बिहार के जागरूक मतदाताओं ने सही निर्णय लिया। उन्होंने ‘जंगल राज’ की वापसी की संभावनाओं को लगभग समाप्त कर दिया। इस बार चुनाव में 2010 के परिणामों की पुनरावृत्ति हुई है, जिसमें एनडीए को दो सौ से अधिक सीटें मिली हैं। चुनाव प्रचार के दौरान ही संकेत मिलने लगे थे कि परिणाम क्या हो सकते हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व हर चुनावी झटके से सीखता है और अगले चुनाव में सुधार के साथ उतरता है। 2020 के चुनाव में एनडीए को एक झटका लगा था, ठीक उसी तरह जैसे 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगा था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात छोड़कर दिल्ली आने के बाद 2017 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ था, जिसमें भाजपा की सीटें एक सौ से नीचे आ गई थीं। मतगणना के दौरान एक समय ऐसा लगा कि बहुमत तक पहुंचना मुश्किल है। लेकिन जब सरकार बनी, तो भाजपा नेतृत्व ने सभी कमियों की पहचान की और उन्हें दूर किया। इसका परिणाम यह हुआ कि 2022 के चुनाव में भाजपा ने 50 प्रतिशत वोट के साथ डेढ़ सौ से अधिक सीटें जीतीं। यह परिणाम बिहार में भी दोहराया गया है। 2020 के झटके से सबक लेकर भाजपा ने गठबंधन की कमियों को दूर किया और परिणाम वैसा ही आया जैसा गुजरात में आया था। बिहार में संभवतः पहली बार किसी गठबंधन को 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले हैं। एनडीए ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट के साथ 202 सीटों पर जीत हासिल की है। ध्यान रहे कि 2010 में जब एनडीए को 206 सीटें मिली थीं, तब भी उसे केवल 39 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार की जीत निर्णायक है और बिहार की राजनीतिक दिशा को बदलने वाली है।
बिहार के चुनाव परिणामों के बाद, प्रधानमंत्री ने पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कई महत्वपूर्ण बातें साझा कीं। उन्होंने कहा कि छठ पूजा का मजाक उड़ाने वालों को बिहार के लोगों ने सबक सिखा दिया है। यह भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस पार्टी अब मुस्लिम लीगी माओवादी पार्टी बन गई है। इससे पहले कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने भी कहा था कि कांग्रेस पिछले कुछ समय से अधिक वामपंथी रुख दिखा रही है, जबकि मनमोहन सिंह के समय में कांग्रेस मध्यमार्गी थी। इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस अपने मूल्यों को छोड़कर विभाजनकारी और हिंसक विचारधारा की ओर बढ़ रही है। बिहार के लोगों ने इस बात को समझा और कांग्रेस के साथ-साथ उसके गठबंधन की सभी पार्टियों को समाप्ति के कगार पर पहुंचा दिया।
बिहार के चुनाव परिणामों के बाद, प्रधानमंत्री ने पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कई महत्वपूर्ण बातें साझा कीं। उन्होंने कहा कि छठ पूजा का मजाक उड़ाने वालों को बिहार के लोगों ने सबक सिखा दिया है। यह भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस पार्टी अब मुस्लिम लीगी माओवादी पार्टी बन गई है। इससे पहले कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने भी कहा था कि कांग्रेस पिछले कुछ समय से अधिक वामपंथी रुख दिखा रही है, जबकि मनमोहन सिंह के समय में कांग्रेस मध्यमार्गी थी। इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस अपने मूल्यों को छोड़कर विभाजनकारी और हिंसक विचारधारा की ओर बढ़ रही है। बिहार के लोगों ने इस बात को समझा और कांग्रेस के साथ-साथ उसके गठबंधन की सभी पार्टियों को समाप्ति के कगार पर पहुंचा दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी मुख्यालय में आयोजित समारोह से पहले सोशल मीडिया में एक वाक्य में बिहार के परिणामों की व्याख्या करते हुए लिख दिया था कि बिहार के लोगों ने सुशासन को चुना है। इस वाक्य में समूचा बिहार चुनाव छिपा है। बिहार में आरंभ से ही इस बात का मुकाबला था कि लोगों को नब्बे के दशक के ‘जंगल राज’ में लौटना है या सुशासन की निरंतरता जारी रखनी है। आरंभ से मुकाबला राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की जोड़ी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच था। तभी लोगों को चुनने में किसी तरह का संशय नहीं रहा।
यह दुर्भाग्य है कि ऐसे स्पष्ट और विशाल जनादेश के बाद भी कांग्रेस के नेता ‘वोट चोरी’ के आरोप लगा रहे हैं और कह रहे हैं कि चुनाव शुरू से ही निष्पक्ष नहीं था। स्वयं राहुल गांधी ने कहा कि, ‘हम एक ऐसा चुनाव हारे हैं, जो शुरू से ही निष्पक्ष नहीं था’। यह अपनी हार पर परदा डालने और बहाने खोजने का प्रयास है। बिहार की जनता ने इससे पहले कभी इतना स्पष्ट जनादेश नहीं दिया था। एनडीए को 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिला है और दो सौ से ज्यादा सीटें मिली हैं। कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी इस पर सवाल उठाकर बिहार के मतदाताओं और उनकी समझदारी का अपमान कर रहे हैं। यही सोच उनकी लगातार पराजय का कारण है और उन्हें अप्रसांगिक बना रही है। भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने के लिए सबसे पहले कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को यह समझना होगा कि भाजपा कैसी तैयारी करती है और कैसे चुनाव लड़ती है। इस बार बिहार के चुनाव में हजारों की संख्या में सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर घूम रहे थे। देश भर के पत्रकार भी पहुंचे थे। उनमें से कई लोगों ने लिखा है और तस्वीरें व वीडियो शेयर किए हैं कि कैसे उत्तर प्रदेश के विधायक या उत्तर प्रदेश के बड़े नेता, दिल्ली के बड़े नेता बिहार के गांवों में घूम रहे थे। लोगों के बीच परचियां बांट रहे थे। लोगों को मोदी और नीतीश सरकार के कामकाज और योजनाओं के बारे में बता रहे थे। ऊपर से देख कर ऐसा लगता है कि भाजपा के सारे नेता हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज से घूम कर प्रचार कर रहे हैं। लेकिन वह भाजपा के चुनाव लड़ने का एक हिस्सा है। असली लड़ाई वह जमीन पर लड़ती है। हजारों नेता और कार्यकर्ता सीधे जनता से संपर्क करते हैं।
बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनावों के परिणामों को लेकर बहुत से लोग अचंभित हैं कि ऐसा कैसे हो गया। परंतु चुनाव शुरू होने के बाद से ही दिख रहा था कि इसी तरह का परिणाम आने वाला है। इसे समझने के लिए पूर्वाग्रह का चश्मा हटाने की आवश्यकता थी। दो तीन बातों से इसे आसानी से समझा जा सकता था। पहली बात तो अंकगणित की है। पिछली बार एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़े चिराग पासवान को 5.66 फीसदी वोट मिले थे और ऐसे ही अलग गठबंधन में लड़े उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने भी डेढ़ फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए थे। इस बार दोनों एनडीए में थे। इसलिए इससे करीब सात फीसदी वोट की बढ़ोतरी हो रही थी। लोकसभा चुनाव के आंकड़ों में यह दिखा, जब एनडीए को 47 फीसदी वोट मिला। हां, मुकेश सहनी जरूर एनडीए से निकल कर महागठबंधन में गए थे लेकिन वहां उनके साथ जो व्यवहार हुआ उससे उनके समर्थक ज्यादा नाराज हो गए और एनडीए के साथ ही बने रहे।
दूसरी बात नेतृत्व की है। जब चुनाव शुरू हुआ तब तक दोनों तरफ से तय नहीं था कि मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा। हालांकि भाजपा ने साफ कर दिया था कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उधर महागठबंधन में महाखटपट चल रही थी। अंत में जैसे ही कांग्रेस और बाकी पार्टियों ने मिलकर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित किया, मुकाबला एकतरफा हो गया। बिहार के लोगों को तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार में से किसे चुनना है, इसमें कोई संशय नहीं रहा। उनके सामने बिहार में नीतीश कुमार और केंद्र में नरेंद्र मोदी का विकल्प था। बिहार के लोगों ने डबल इंजन और मोदी-नीतीश की जुगलबंदी को पसंद किया।
तीसरी बात सरकार की योजनाओं की है। बिहार सरकार ने इस साल जुलाई से 125 यूनिट बिजली फ्री कर दी थी। उसके बाद सामाजिक सुरक्षा की पेंशन, जिसमें विधवा, दिव्यांगजन और बुजुर्गों की पेंशन शामिल है, उसे चार सौ से बढ़ाकर 11 सौ रुपए कर दिया। इसके अलावा हर पेशेवर समूहों का मानदेय बढ़ाया गया। अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री महिला उद्यमी योजना की शुरुआत करते हुए पहली बार 75 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए भेजे। इसके बाद 50 लाख से ज्यादा और महिलाओं के खाते में नकद पैसे गए। इन तमाम योजनाओं पर प्रभावी तरीके से अमल हुआ, जिससे हर लाभार्थी को सरकार की सारी योजनाओं का संपूर्ण लाभ मिलने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अगर सरकार के खिलाफ 20 साल की थोड़ी बहुत नाराजगी थी भी, तो वह समाप्त हो गई। अंत में चुनाव प्रबंधन की बात आती है, तो उसके बारे में सबको पता है कि भाजपा कैसे चुनाव लड़ती है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्वयं प्रचार और प्रबंधन की कमान संभाली। उन्होंने टिकट बंटवारे के बाद अनेक नेताओं से बात की और उनकी नाराजगी दूर करके चुनाव प्रचार में लगाया। चुनाव आते-आते पूरा गठबंधन एकजुट होकर लड़ रहा था और दूसरी ओर महागठबंधन के सारे नेता एक दूसरे से ही लड़ रहे थे। 12 सीटों पर गठबंधन की पार्टियों के बीच फ्रेंडली फाइट हो रही थी, जिससे उनका टकराव पूरी तरह से जनता की नजरों में आ गया। लोगों ने समझ लिया कि यह गठबंधन बिहार के भले के लिए नहीं, बल्कि बिहार की लूट के लिए बना है। स्पष्ट है कि जंगल राज की संभावना को स्थायी रूप से समाप्त करने और बिहार का विकास कर रही सरकार को फिर से चुनने के लिए रिकॉर्ड संख्या में लोगों ने मतदान किया। आजादी के बाद पहली बार बिहार में 67 फीसदी मतदान हुआ, जिसमें महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 71 से ऊपर रहा। यह अपने आप में एक संकेत था, जिससे लोगों को समझ जाना चाहिए था कि क्या परिणाम आने वाले हैं।
परिणाम के बाद अब सवाल है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? भारतीय जनता पार्टी इस बार सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। पहली बार ऐसा हुआ कि भाजपा बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनी है। उसने सिर्फ 101 सीटें लड़कर 89 पर जीत हासिल की है। यह जनादेश लोगों की आकांक्षा को प्रतीकित करता है। बिहार के लोग भाजपा का मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं क्योंकि उनके सामने पड़ोसी उत्तर प्रदेश से लेकर दूसरे भाजपा शासित राज्यों का उदाहरण मौजूद है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्य भी एक समय बीमारू राज्यों की श्रेणी में थे, लेकिन आज ये विकसित राज्य बन गए हैं। अगर बिहार में भाजपा का मुख्यमंत्री बनता है, तो केंद्र के साथ बेहतर तालमेल और नए विजन के साथ बिहार आगे बढ़ेगा। विकास की गति और तेज हो जाएगी। हालांकि ऐसे फैसले गठबंधन की आवश्यकता और प्रतिबद्धता के आधार पर किए जाते हैं। फिर भी बिहार के लोगों की आकांक्षा स्पष्ट है। (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तामंग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)
