भगवान शंकर का अपमान: हिमाचलवासियों की प्रतिक्रिया
भगवान शंकर के हिमाचल में आगमन के दौरान अपमान की एक दिलचस्प कहानी सामने आई है। मैना, जो उनकी सासु जी हैं, ने उनके डरावने रूप को देखकर भयभीत होकर भागने का निर्णय लिया। इस घटना ने न केवल भगवान के प्रति सम्मान की कमी को उजागर किया, बल्कि यह भी दर्शाया कि कैसे एक साधारण व्यक्ति भी अपमान को सहन नहीं कर सकता। जानें इस कथा में आगे क्या होता है और मैना की प्रतिक्रिया के पीछे की भावनाएं क्या हैं।
May 29, 2025, 15:25 IST
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भगवान शंकर का आगमन और अपमान
संसार में अपमान किसी को भी पसंद नहीं आता। सम्मान की कमी सहन की जा सकती है, लेकिन अपमान सहन करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता। जब एक साधारण व्यक्ति इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता, तो हम भगवान के लिए ऐसा क्यों सोचें? यह निश्चित रूप से गलत है। लेकिन जब भगवान शंकर अपनी बारात के साथ हिमाचल के महलों में पहुंचे, तो क्या वहां के निवासियों ने उनका सम्मान किया? भगवान शंकर, जो सृष्टि के पहले योगी और महान तपस्वी हैं, जिनका सम्मान स्वयं विष्णु और ब्रह्मा करते हैं, उनका अपमान किया गया। मैना, जो भगवान शंकर की सासु जी हैं, उनका स्वागत करने आईं, लेकिन जब उन्होंने भोलेनाथ को देखा, तो भय से कांपने लगीं। गोस्वामी जी ने कहा है-
‘कंचन थार सोह बर पानी।
परिछन चली हरहि हरषानी।।
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा।
अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा।।
भागि भवन पैठीं अति त्रसा।
गए महेसु जहाँ जनवासा।।
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी।
लीन्ही बोली गिरीसकुमारी।।’
भगवान शंकर के डरावने रूप को देखकर मैना घबरा गईं। आरती की थाली वहीं गिर गई। उनकी आंखें पलट गईं और माथा पसीने से भीग गया। उनके शरीर में भय की लहर दौड़ गई। जहां उन्हें खुशी से भरपूर होना चाहिए था, वहां वे शोक में डूब गईं। उन्होंने दूल्हे के स्वागत की सभी रस्में भूल गईं। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि वे अपने जमाई राजा का स्वागत करने आई हैं। भयभीत होकर उन्होंने आरती का थाल गिरा दिया और उल्टे पैर भाग गईं। इस उम्र में भी वे इतनी तेजी से दौड़ीं, जैसे कोई धावक हो। उन्हें यह भी नहीं पता चला कि रास्ते में कोई रुकावट है या नहीं। बस, उन्हें अपनी जान की रक्षा करनी थी।
इधर भगवान शंकर, आज के समय में केवल भगवान ही नहीं हैं, बल्कि मैना के जमाई भी हैं। यदि किसी दूल्हे के साथ ऐसा व्यवहार किया जाए, तो वह निश्चित रूप से वापस मुड़ जाएगा। लेकिन भगवान शंकर को देखिए, वे एक बार भी क्रोधित नहीं होते। वे उस दिशा में बढ़ते हैं, जहां उनके ठहरने का प्रबंध किया गया था। उन्हें यह महसूस नहीं हुआ कि उनका अपमान हुआ है। क्योंकि शंभू नाथ तो मान-अपमान से कोसों दूर हैं।
वास्तव में, भगवान शंकर मैना के द्वारा मिलने वाले सम्मान के लिए नहीं आए थे। उन्हें तो भगवान श्रीराम जी की आज्ञा थी कि उन्हें देवी पार्वती जी से विवाह करना है। इसके अलावा, वे स्वयं पार्वती जी के तप और प्रेम में बंधकर यहां आए थे। हिमाचल में उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो उन्हें दिल से प्रेम से मिले। सभी उनसे डरकर भाग रहे थे। भागने दो, भोलेनाथ को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो अपने परिणय सूत्र में बंधने आए थे, जो उनकी प्रतीक्षा में कठिन तप कर रही थीं। इसलिए, मान-अपमान से दूर, वे अपने जनवासे में जाकर बैठ गए।
इधर मैना की स्थिति अलग थी। जहां उन्हें मंगल गीत गाने थे, वहां वे विलाप करने लगीं। रोती-बिलखती मैना ने देवी पार्वती को अपने पास बुलाया-
‘अधिक सनेहँ गोद बैठारी।
स्याम सरोज नयन भरे बारी।।
जेहिं बिधि तुम्हहि रुपु अस दीन्हा।
तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा।।’
मैना ने देवी पार्वती को अपनी गोद में बिठाकर कहा-जिस विधाता ने तुम्हें इतना सुंदर रूप दिया, उसने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बना दिया?
मैना विधाता को कैसे दोष देती हैं, और देवी पार्वती अपनी माँ को कैसे समझाती हैं, यह जानने के लिए अगले अंक का इंतजार करें।
क्रमशः
- सुखी भारती