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भारत की ज्ञान परंपरा: एक गंभीर आत्मावलोकन

इस लेख में भारत की ज्ञान परंपरा और राष्ट्रवाद के प्रभाव पर गहराई से चर्चा की गई है। लेखक ने बताया है कि कैसे आज की स्थिति में साहित्यिक और मीडिया की कमी है, और कैसे राष्ट्रवाद ने हमारी सोच को प्रभावित किया है। यह लेख न केवल वर्तमान परिदृश्य को उजागर करता है, बल्कि हमें आत्ममंथन के लिए भी प्रेरित करता है। जानें कि कैसे हम अपनी पहचान और संस्कृति को पुनर्जीवित कर सकते हैं।
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भारत की ज्ञान परंपरा: एक गंभीर आत्मावलोकन

भारत के ज्ञान का दंभ

भारत के विश्वगुरु होने का दावा अत्यंत शर्मनाक है। वास्तव में, ज्ञान का गर्व करना सबसे दयनीय स्थिति है। सवा अरब की जनसंख्या वाले इस देश में न तो हिंदी और न ही अंग्रेजी में कोई ऐसी साहित्यिक या वैचारिक पत्रिका है जो पूरे देश में प्रसिद्ध हो। इसका अर्थ है कि देश के हर कोने में पहुंचने वाला कोई साहित्यिक या वैचारिक मंच नहीं है। यह स्थिति अंग्रेजी राज में नहीं थी। आज हमारे पास कोई ऐसा हिंदी टीवी चैनल भी नहीं है जो रोजाना देश-विदेश के महत्वपूर्ण समाचारों को प्रस्तुत करे। हमारे यहाँ केवल तमाशा, चीख-पुकार और तू-तू-मैं-मैं का माहौल है।


राष्ट्रवाद का प्रभाव

राष्ट्रवाद एक नशे की तरह है, जिससे लोग प्रभावित हैं। यह हर चीज को 'हम' और 'वे' में बांटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। यह धार्मिक या नैतिक आधार पर नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ पर आधारित है। इसी मानसिकता के कारण हम अपनी समस्याओं का दोष विदेशियों पर डालते हैं। प्रमाण की कोई परवाह नहीं होती, न ही हालात बदलने की चिंता। बस, किसी की निंदा और आत्मश्लाघा ही विमर्श का मुख्य विषय बन गया है। चाहे वह राजनीतिक भाषण हो या अकादमिक लेख।


साहित्य और मीडिया की स्थिति

उदाहरण के लिए, जो काम हमारे देश के शासक पिछले अठारह वर्षों से कर रहे हैं, उसका दोष भी एक विदेशी पर लगाया जाता है, जो 166 वर्ष पहले चला गया। हमारी भाषाएं और लिपियाँ लगातार कमजोर हो रही हैं, जो हमारी संस्कृति के लोप होने का संकेत है। क्या इस पर संसद या अकादमियों में कभी चर्चा हुई? जबकि 'भारतीय ज्ञान' का ढोल पीटने में करोड़ों रुपये और मानव संसाधन बर्बाद किए जा रहे हैं।


विदेशी प्रभाव और भारतीयता

आज, कोई भी हिंदी टीवी चैनल नहीं है जो महत्वपूर्ण समाचारों को प्रस्तुत करे। यूरोप और अमेरिका में उनकी भाषाओं में न केवल कई साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, बल्कि उनके टीवी चैनल भी ज्ञानवर्धक डॉक्यूमेंट्रीज़ से भरे होते हैं। हमारे यहाँ केवल तमाशा है। क्या बीबीसी या सीएनएन में ऐसा होता है? यदि नहीं, तो क्या इसका दोष भी पंडित नेहरू या लॉर्ड डफरिन पर डालना चाहिए?


सोशल मीडिया और राष्ट्रवाद

हमारी मानसिकता यह मानती है कि हर समस्या का दोष या तो सामान्य है या फिर विदेशियों की करतूत। हम इसी सोच के साथ संतुष्ट रहते हैं। हर बात में 'हम सही' और 'वे गलत' की धारणा है। यह राष्ट्रवाद का रोग है, जिसने हमें सोचने-समझने से मुक्त कर दिया है। आज, प्रोपेगंडा एक राष्ट्रीय रोग बन चुका है। यदि कोई प्रमाण मांगता है, तो उसे संदिग्ध समझा जाता है।


भारतीयता की खोज

इसलिए, आज 'भारतीय ज्ञान' का ढोल पीटना ही राष्ट्रवादी चिंतन माना जाता है। हर लेख या भाषण में 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को नारे की तरह पेश किया जाता है। जबकि यूरोप और अमेरिका को संकीर्ण और लुटेरे माना जाता है। यह सब पार्टीवाद का दूसरा पहलू है।


निष्कर्ष

हमें अपने अंतर्विरोधों को पहचानने की आवश्यकता है। जो लोग संस्कृत सूक्तियाँ दुहराते हैं, वे हमारी आर्थिक, शैक्षिक और वैदेशिक नीतियों में कहीं नहीं दिखते। हमें यह समझना होगा कि केवल नकल करने से हम स्वतंत्र भारत नहीं बन सकते।