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भारत की सीमाओं पर बुनियादी ढांचे का विकास: सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम

भारत ने हिमालय की ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में बुनियादी ढांचे के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। यह अभियान चीन के साथ सीमा पर सैन्य स्थिति को मजबूत करने के लिए है। गलवान घाटी में संघर्ष के बाद, भारत ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है, जिसमें सड़कें, सुरंगें और हवाई सुविधाएं शामिल हैं। हालांकि, ऊंचाई पर रसद पहुंचाना अब भी चुनौतीपूर्ण है। यह निर्माण केवल सेना के लिए नहीं, बल्कि सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है।
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भारत की सीमाओं पर बुनियादी ढांचे का विकास: सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम

भारत का निर्माण अभियान

नई दिल्ली: भारत हिमालय की ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं और कठिन घाटियों में बुनियादी ढांचे के विकास में जुटा हुआ है। इसका मुख्य उद्देश्य चीन के साथ अपनी सीमा पर सैन्य और रणनीतिक स्थिति को मजबूत करना है। इस परियोजना में नई सड़कें, सुरंगें, पुल, हेलीपैड और हवाई पट्टियां शामिल हैं। यह अभियान विशेष रूप से 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी में भारत-चीन संघर्ष के बाद तेज हुआ है, जिसने भारत को सीमा पर मजबूत बुनियादी ढांचे की आवश्यकता का एहसास कराया।


गलवान संघर्ष के बाद की सोच में बदलाव

2020 में गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प में 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। इस संघर्ष ने भारत की कुछ कमजोरियों को उजागर किया। चीन पहले से ही तिब्बत और शिनजियांग में सड़कों, रेलवे लाइनों और सैन्य ठिकानों का एक मजबूत नेटवर्क बना चुका था, जिससे वह तेजी से सैनिक और हथियार सीमा तक पहुंचा सकता था।

सेना के पूर्व अधिकारियों का मानना है कि इस अनुभव के बाद भारत की सोच में बड़ा बदलाव आया है। पहले यह माना जाता था कि सीमा के पास सड़कें बनाना खतरनाक हो सकता है, लेकिन अब यह समझा गया है कि अच्छी सड़कें और कनेक्टिविटी न होने से देश की सुरक्षा कमजोर हो जाती है।


हिमालय में प्रमुख परियोजनाएं

इस पूरे अभियान की जिम्मेदारी बॉर्डर रोड्स ऑर्गनाइजेशन (BRO) के पास है। 2025 तक BRO का बजट बढ़कर लगभग 810 मिलियन डॉलर होने की उम्मीद है। इसके तहत हजारों किलोमीटर लंबी सड़कें, कई सुरंगें, पुल, हेलीपैड और हवाई पट्टियां बनाई जा रही हैं।


जोजिला सुरंग

जोजिला सुरंग इस अभियान की सबसे महत्वपूर्ण परियोजनाओं में से एक है। यह सुरंग लगभग 11,500 फीट की ऊंचाई पर बन रही है और इसकी लंबाई लगभग 14 किलोमीटर है। इस पर 750 मिलियन डॉलर से अधिक खर्च होने की संभावना है। इसके निर्माण के बाद लद्दाख पूरे साल देश के अन्य हिस्सों से जुड़ा रहेगा। सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण लद्दाख का संपर्क महीनों तक कट जाता है। सुरंग से यात्रा आसान होगी और सेना तथा आम लोगों को आवश्यक सामान की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित होगी।


न्योमा एयरबेस और हवाई सुविधाएं

भारत ने हवाई कनेक्टिविटी पर भी ध्यान केंद्रित किया है। लद्दाख का न्योमा एयरबेस लगभग 14,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और चीन की सीमा के निकट है। यहां बड़े सैन्य विमान उतर सकते हैं, जिससे सैनिकों और उपकरणों को तेजी से पहुंचाया जा सकता है। इसके अलावा, 30 से अधिक नए हेलीपैड बनाए गए हैं और कई पुराने हवाई पट्टियों को बेहतर किया गया है। अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तराखंड में भी सड़क और पुल परियोजनाएं तेजी से चल रही हैं।


ऊंचाई पर रसद पहुंचाना चुनौती

हालांकि बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है, लेकिन इतनी ऊंचाई पर सामान पहुंचाना अब भी एक कठिन कार्य है। आवश्यक सामग्री पहले रेल और ट्रकों से जम्मू-कश्मीर के डिपो तक लाई जाती है, फिर काफिलों के जरिए लेह भेजी जाती है। इसके बाद छोटे वाहनों और कई बार खच्चरों व कुलियों की मदद से सामान अंतिम चौकियों तक पहुंचाया जाता है। सेना के अनुसार, हर सैनिक को हर महीने लगभग 100 किलो सामान की आवश्यकता होती है। छोटे आउटपोस्ट रोजाना बड़ी मात्रा में ईंधन खर्च करते हैं। यह एक बहुत बड़ा और लगातार चलने वाला लॉजिस्टिक ऑपरेशन है।


सोच में बदलाव और भविष्य

पहले भारत में यह डर था कि सीमा के पास बड़े निर्माण से खतरा बढ़ सकता है, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। चीन की तेज तैयारी ने भारत को अपनी रणनीति में बदलाव करने के लिए मजबूर कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि बेहतर सड़कें और अधिक गश्त से टकराव की आशंका बढ़ सकती है, लेकिन भारत इसे आक्रामक कदम नहीं, बल्कि सुरक्षा के लिए आवश्यक निवारक उपाय मानता है। यह निर्माण अभियान केवल सेना के लिए नहीं है, बल्कि सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के विकास और जीवन को बेहतर बनाने का भी प्रयास है। हालांकि, इससे भारत और चीन के बीच तनाव बना रह सकता है, लेकिन भारत इसे अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए आवश्यक मानता है.