भारत के उपराष्ट्रपति चुनाव में सुरजीत सिंह बरनाला की प्रेरणादायक कहानी
संसद में उपराष्ट्रपति चुनाव का माहौल
आज संसद का माहौल विशेष है। लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य भारत के नए उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान करने जा रहे हैं। सत्तारूढ़ एनडीए ने सीपी राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाया है, जबकि विपक्षी इंडिया ब्लॉक ने पूर्व जज बी सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारा है। देश अब परिणामों का इंतजार कर रहा है, लेकिन इस अवसर पर 1997 के उस ऐतिहासिक क्षण को याद करना आवश्यक है, जो आज भी प्रेरणा देता है।यह वह समय था जब एकमात्र सिख नेता ने उपराष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भरा था। उस नेता का नाम था सुरजीत सिंह बरनाला। वे भारतीय राजनीति में सादगी, संघर्ष और सिद्धांतों का प्रतीक रहे हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और विभिन्न राज्यों के राज्यपाल रह चुके बरनाला ने 1997 में उपराष्ट्रपति पद की दौड़ में भाग लिया। उस समय वे भाजपा और सहयोगी दलों के साझा उम्मीदवार थे।
उनका मुकाबला संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस के समर्थन से खड़े कृष्णकांत से था। चुनाव परिणाम स्पष्ट थे—कृष्णकांत को 441 वोट मिले, जबकि बरनाला को 273 वोट मिले। वे चुनाव हार गए, लेकिन उनका नाम इतिहास में अमर हो गया। वे भारत के उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले पहले और अब तक के एकमात्र सिख उम्मीदवार बने।
सुरजीत सिंह बरनाला का राजनीतिक सफर
बरनाला केवल एक राजनेता नहीं थे, बल्कि वे एक विचारधारा का प्रतीक थे। 1985 से 1987 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहने के दौरान, जब राज्य सिख उग्रवाद से जूझ रहा था, उन्होंने संवाद और शांति का मार्ग चुना।
इसके बाद, वे अंडमान-निकोबार के उपराज्यपाल, तमिलनाडु, उत्तराखंड और आंध्र प्रदेश के राज्यपाल और केंद्रीय मंत्रिमंडल में कृषि, खाद्य और रसायन जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री बने। उनका राजनीतिक जीवन अनुशासन और लोकतांत्रिक मूल्यों का उदाहरण रहा है।
बरनाला की कहानी का महत्व
आज जब देश एक नए उपराष्ट्रपति का चुनाव कर रहा है, तो सुरजीत सिंह बरनाला की कहानी हमें याद दिलाती है कि भारत की राजनीति में विविधता, समावेश और सिद्धांतों की कितनी अहमियत है।
हालांकि बरनाला चुनाव हार गए थे, लेकिन उन्होंने सिख समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक मिसाल कायम की। उनका शांत स्वभाव, सभी दलों में स्वीकार्यता और संघर्षशील व्यक्तित्व आज भी राजनीति को नई दिशा दे सकता है।