भारत-चीन संबंधों में तिब्बत का नया मोड़: दलाई लामा का उत्तराधिकारी विवाद
भारत-चीन संबंधों में तिब्बत का महत्व
हालिया घटनाक्रम ने भारत और चीन के बीच तिब्बत के मुद्दे को फिर से महत्वपूर्ण बना दिया है। यह समस्या 1950 के दशक से चली आ रही है, जब 1959 में दलाई लामा अपने अनुयायियों के साथ तिब्बत से भागकर भारत आए। उस समय की जवाहरलाल नेहरू सरकार ने उन्हें न केवल शरण दी, बल्कि तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत की धरती से संचालित करने की अनुमति भी दी। इस स्थिति ने भारत-चीन संबंधों में एक नया मोड़ ला दिया है।
आइए, पहले घटनाक्रम पर नजर डालते हैं:
- 2 जुलाई को, निर्वासित तिब्बती नेता दलाई लामा ने अपने 90वें जन्मदिन से पहले घोषणा की कि उनके उत्तराधिकारी का चुनाव फोद्रांग ट्रस्ट द्वारा किया जाएगा, जिसे 2015 में स्थापित किया गया था।
- चीन ने इस घोषणा को तुरंत खारिज कर दिया। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि दलाई लामा और पंचेन लामा का चयन धार्मिक परंपराओं के अनुसार होगा और यह प्रक्रिया चीन की सरकार की मंजूरी से ही होगी।
- केंद्रीय मंत्री किरन रिजीजू ने दलाई लामा के रुख का समर्थन करते हुए चीन के दावे को खारिज कर दिया।
- चीन ने रिजीजू के बयान पर आपत्ति जताते हुए भारत को तिब्बत के मुद्दे पर सावधानी बरतने की सलाह दी।
- इसके बाद, भारत सरकार ने रिजीजू के बयान से पीछे हटते हुए स्पष्ट किया कि वह धार्मिक मामलों में कोई रुख नहीं अपनाती।
- दलाई लामा का 90वां जन्मदिन हिमाचल प्रदेश के मैकलियॉडगंज में मनाया गया, जिसमें भारत सरकार के दो मंत्री शामिल हुए।
तिब्बत का मुद्दा और भारत-चीन संबंध
तिब्बत का मुद्दा भारत-चीन संबंधों में एक महत्वपूर्ण कांटा रहा है। 1962 में हुए युद्ध का एक प्रमुख कारण भी यही था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में बीजिंग यात्रा के दौरान इस विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया, जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया।
हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में तिब्बत का मुद्दा फिर से उभरा है। मोदी ने कई बार तिब्बत के मुद्दे पर संकेत दिए हैं, लेकिन जब भी स्थिति तनावपूर्ण हुई, सरकार ने कदम पीछे खींच लिए।
हाल की घटनाओं में, दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चुनाव पर किरन रिजीजू के बयान के बाद भारत सरकार ने स्पष्टीकरण दिया। लेकिन चीन ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी।
चीन के राजदूत ने कहा कि दलाई लामा का उत्तराधिकार पूरी तरह से चीन का आंतरिक मामला है और इसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जाएगी।
भारत की नीति और भविष्य की दिशा
भारत को अपने हितों के अनुसार स्वतंत्र नीति अपनानी चाहिए। तिब्बत के ऐतिहासिक संदर्भ और भारत के रुख को ध्यान में रखते हुए सही नीति तय की जानी चाहिए।
इस संदर्भ में, अवतार सिंह भसीन की पुस्तक 'नेहरू, तिब्बत एंड चाइना' महत्वपूर्ण है, जिसमें तिब्बत पर चीन के दावे और भारत की नीति का विश्लेषण किया गया है।
भसीन ने बताया है कि तिब्बत पर चीन का दावा चिंग वंश के दौरान के प्रभुत्व पर आधारित है। उन्होंने यह भी कहा कि तिब्बत के मामले में चीन का रुख पूरी तरह से निराधार नहीं है।
भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह बिना किसी स्पष्ट नीति के तिब्बत कार्ड न खेले, क्योंकि इससे दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं।