भारत में शिक्षा और तकनीक का मानव-केंद्रित दृष्टिकोण
शिक्षा और तकनीक का नेतृत्व
भारत को एक ऐसी सोच की आवश्यकता है जो व्यक्तियों को केवल डेटा बिंदु के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र, समझदार और गरिमामय नागरिक के रूप में देखे। यह लोकतांत्रिक दृष्टिकोण प्रगति को केवल आंकड़ों से नहीं, बल्कि आशाओं और अवसरों से मापता है।
नौकरी विरोधाभास का विश्लेषण
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एजाज़ ग़नी ने अपने हालिया कार्यपत्र में भारत के 'नौकरी विरोधाभास' की गहन व्याख्या की है। यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था का चित्रण करता है जो आगे बढ़ रही है, जबकि लाखों युवा बेरोजगारी या कम उत्पादक कार्यों में फंसे हुए हैं। ग़नी ने तीन 'संरचनात्मक अवरोध' की पहचान की है—'संपार्श्विक जाल', 'नियामक बौनेपन', और महिलाओं पर 'त्रि-कर भार'।
नया सामाजिक अनुबंध
ग़नी का सुझाव है कि एक 'नया सामाजिक अनुबंध' होना चाहिए, जो डिजिटल सार्वजनिक ढांचे पर आधारित हो। इसमें सूचना-आधारित ऋण प्रणाली, एक पोर्टेबल 'मोबिलिटी शील्ड', और एक राष्ट्रीय जॉब्स काउंसिल शामिल होनी चाहिए। हालांकि, यह दृष्टिकोण अक्सर गरीबों को आंकड़ों में बदल देता है।
मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता
नीति-निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि शिक्षा का स्तर क्यों इतना निम्न है। आज़ादी के 75 साल बाद भी सरकारी स्कूलों में छात्रों की बुनियादी साक्षरता की कमी है। शिक्षा की गुणवत्ता का संकट हमारे विकास में बाधा डाल रहा है।
डिजिटल बुनियादी ढांचे की परीक्षा
भारत ने डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना में महत्वपूर्ण प्रगति की है, लेकिन असली परीक्षा यह है कि यह नागरिकों को केंद्र में रखता है या नहीं। क्या यह तकनीक व्यक्ति की गरिमा और सुरक्षा को बढ़ाने के लिए है, या केवल डेटा संग्रहण के लिए?
नीति की भाषा में बदलाव
भारत की विकास गाथा को नया मोड़ देने के लिए नीति निर्माण की भाषा को बदलना आवश्यक है। नागरिकों को केवल 'लाभार्थी' नहीं, बल्कि गरिमा-युक्त सहभागी के रूप में देखा जाना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य केवल बाजार की जरूरतें पूरी करना नहीं, बल्कि नागरिकों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील बनाना भी होना चाहिए।
