Newzfatafatlogo

महाराष्ट्र में हिंदी सियासत का विवाद: पहचान की राजनीति का असर

महाराष्ट्र में हिंदी सियासत के विवाद ने पहचान की राजनीति को एक नई दिशा दी है। हालिया घटनाक्रम में, राज्य सरकार ने त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत हिंदी को अनिवार्य करने का प्रयास किया, लेकिन भारी विरोध के चलते उसे अपने कदम वापस खींचने पड़े। ठाकरे बंधु ने इस मुद्दे पर एकजुटता दिखाई और साझा रैली का ऐलान किया। जानें कैसे यह विवाद आम जनता को प्रभावित कर रहा है और राजनीतिक दलों की रणनीतियों को बदल रहा है।
 | 
महाराष्ट्र में हिंदी सियासत का विवाद: पहचान की राजनीति का असर

महाराष्ट्र में हिंदी सियासत का संकट

महाराष्ट्र में हालिया घटनाक्रम यह दर्शाता है कि पहचान की राजनीति कैसे विवादों को जन्म देती है, भले ही इसकी जड़ें वहां न हों। ऐसे विवाद आज भारत में आम जनता को जोड़ने वाले हर पहलू को प्रभावित कर रहे हैं।


महाराष्ट्र में हिंदी सियासत एक जटिल स्थिति में फंस गई है। यह भाषा, जो जोड़ने का कार्य करती थी, अब वहां विभाजन का कारण बन गई है। राजनीतिक दलों की रुचि माहौल को गरमाने में है, जबकि समस्याओं का समाधान मेल-मिलाप से किया जा सकता है। हिंदी विरोध कभी महाराष्ट्र में एक मजबूत मुद्दा नहीं रहा। यह विडंबना है कि मुंबई, जो हिंदी फिल्म उद्योग का केंद्र है, ने हिंदी को आम जनता के बीच फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालाँकि, हाल की स्थिति यह है कि राज्य की भाजपा सरकार ने त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत स्कूलों में हिंदी पढ़ाने का निर्णय लिया, लेकिन उसे दोनों बार अपने कदम वापस खींचने पड़े।


अप्रैल में, सरकार ने मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को अनिवार्य करने का प्रयास किया, लेकिन भारी विरोध के कारण उसे यह आदेश वापस लेना पड़ा। ताजा मामले में, सरकार ने बैक डोर का सहारा लिया। 17 जून को जारी सरकारी आदेश में कहा गया कि जिन स्कूलों में कम से कम 20 छात्र किसी अन्य भाषा की पढ़ाई की मांग नहीं करेंगे, वहां तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाई जाएगी। इस पर फिर से विरोध भड़क उठा। ठाकरे बंधु, उद्धव और राज, इस मुद्दे पर अपने मतभेद भुलाने को तैयार हो गए और 5 जुलाई को एक साझा रैली का ऐलान किया। उन्हें सिविल सोसायटी संगठनों का समर्थन भी मिला।


राज्य सरकार द्वारा नियुक्त भाषा समिति ने भी फड़णवीस सरकार की भाषा नीति की आलोचना की। अंततः, देवेंद्र फड़णवीस सरकार को फिर से कदम वापस खींचने पड़े हैं। अब उन्होंने त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू करने के लिए सुझाव देने के लिए एक नई समिति का गठन करने की घोषणा की है। यह घटनाक्रम यह दर्शाता है कि पहचान की भावनात्मक राजनीति कैसे विवाद पैदा कर सकती है, भले ही इसकी जड़ें वहां न हों। पिछले साढ़े तीन दशकों से ऐसी राजनीति ने भारत में हर कदम पर विवाद खड़े कर दिए हैं, जो आम जनता को जोड़ने वाले हर पहलू की बलि ले रहे हैं।