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यूनेस्को से अमेरिका की तीसरी बार वापसी: क्या हैं इसके पीछे के कारण?

संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक बार फिर यूनेस्को से खुद को अलग करने का निर्णय लिया है। यह अमेरिका की यूनेस्को से तीसरी बार वापसी है, जो पहले 1984 और 2017 में भी हुई थी। अमेरिका ने यूनेस्को पर विभाजनकारी एजेंडा बढ़ाने और फिलिस्तीन को सदस्यता देने का आरोप लगाया है। जानें इस निर्णय के पीछे के कारण और अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में भागीदारी की नीति के बारे में।
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यूनेस्को से अमेरिका की तीसरी बार वापसी: क्या हैं इसके पीछे के कारण?

अमेरिका ने यूनेस्को से अलग होने का निर्णय लिया

संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक बार फिर यूनेस्को से खुद को अलग करने का निर्णय लिया है। मंगलवार को जारी एक आधिकारिक बयान में कहा गया कि यूनेस्को की नीतियां और प्राथमिकताएं अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए यह कदम उठाया गया है। यह अमेरिका की यूनेस्को से तीसरी बार वापसी है, इससे पहले 1984 और 2017 में भी ऐसा हुआ था।


यूनेस्को पर अमेरिका के आरोप

अमेरिका ने यूनेस्को पर विभाजनकारी एजेंडा का आरोप लगाया


अमेरिका ने यूनेस्को पर आरोप लगाया है कि वह विभाजनकारी सामाजिक और सांस्कृतिक एजेंडा को बढ़ावा दे रहा है, जो उसकी 'अमेरिका फर्स्ट' विदेश नीति के खिलाफ है। इसके अलावा, अमेरिका ने यूनेस्को द्वारा फिलिस्तीन राज्य को सदस्यता देने की भी कड़ी आलोचना की है, जिसे उसने अपनी विदेश नीति और इज़राइल की सुरक्षा के खिलाफ माना है। अमेरिका का कहना है कि यह निर्णय यूनेस्को के भीतर इज़राइल विरोधी सोच को बढ़ावा देता है।


यूनेस्को से अमेरिका की वापसी का इतिहास

अमेरिका की पहली वापसी 1984 में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल के दौरान हुई थी, जब संगठन पर पक्षपात, कुप्रबंधन और पश्चिम विरोधी रुख के आरोप लगाए गए थे। हालांकि, 2003 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रशासन ने अमेरिका की वापसी सुनिश्चित की। दूसरी बार, 2017 में डोनाल्ड ट्रंप ने यूनेस्को छोड़ने का ऐलान किया, जिसके पीछे इज़राइल विरोध, बढ़ी सदस्यता लागत और सुधारों की कमी जैसे कारण थे।


अमेरिका की वर्तमान स्थिति

इस बार की वापसी के तहत अमेरिका 31 दिसंबर 2026 तक यूनेस्को का पूर्ण सदस्य बना रहेगा। अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता टैमी ब्रूस ने बताया कि यह निर्णय यूनेस्को संविधान के अनुच्छेद II(6) के अंतर्गत लिया गया है। अमेरिका का स्पष्ट कहना है कि उसकी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में भागीदारी केवल उन्हीं एजेंसियों तक सीमित रहेगी जो उसके रणनीतिक और राष्ट्रीय हितों को मजबूती देती हैं।