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यूरोप में आतंकवाद और सांस्कृतिक संकट: एक गंभीर चेतावनी

यूरोप में बढ़ते आतंकवाद और सांस्कृतिक संकट पर यह लेख गंभीर चिंताओं को उजागर करता है। फ्रांस और जर्मनी में हालिया घटनाओं ने यह दर्शाया है कि कैसे धार्मिक कट्टरता और प्रवासन के मुद्दे समाज को प्रभावित कर रहे हैं। जानें कि कैसे ये घटनाएँ न केवल यूरोप, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक चेतावनी बन गई हैं।
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यूरोप में आतंकवाद और सांस्कृतिक संकट: एक गंभीर चेतावनी

यूरोप में बढ़ता आतंकवाद और सांस्कृतिक संकट

कौन बना रहा है भय का माहौल?

फ्रांसीसी मीडिया के अनुसार, मैनहैटन इंस्टीट्यूट के आप्रवासन विशेषज्ञ डैनियल डी मार्टिनो ने कहा है, “यह स्पष्ट है कि यूरोप में बिना उचित जांच के बड़े पैमाने पर मुस्लिम प्रवासन का परिणाम है।” यह स्थिति एक गहरे संकट को उजागर करती है, जिसमें तथाकथित ‘उदार’ समाज खुद को विनाश की ओर ले जा रहा है।


25 दिसंबर को क्रिसमस का पर्व पूरी दुनिया में मनाया गया। यह उत्सव अब किसी एक धर्म तक सीमित नहीं रह गया है। सभी धर्मों के लोग इस पर्व का हिस्सा बनते हैं। लेकिन मेरा आज का लेख इस वैश्विक उत्सव की धार्मिक आस्थाओं या उत्पत्ति पर नहीं है, बल्कि यह फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों में हो रही चिंताजनक घटनाओं पर आधारित है, जो पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चेतावनी है।


पेरिस, जो दशकों से शैंपेन और आनंद का प्रतीक रहा है, अब अपनी चमक खोता जा रहा है। इस नववर्ष की पूर्वसंध्या पर प्रसिद्ध ‘चैंप्स-एलिसीज’ पर कोई भीड़ नहीं होगी। पिछले साठ वर्षों से आधी रात को उमड़ने वाली भीड़ की जगह टीवी पर पहले से रिकॉर्ड किया गया कार्यक्रम दिखाया जाएगा, जिसे लोग अपने घरों में सुरक्षित बैठकर देखेंगे। पिछले वर्ष इस संगीत समारोह में लगभग दस लाख लोग शामिल हुए थे। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार, पिछले नववर्ष पर अप्रवासी उपद्रवियों द्वारा एक हजार गाड़ियों को जलाने की घटना के बाद, इस बार भी अराजकता की आशंका है।


जर्मनी के जेडडीएफ के अनुसार, क्रिसमस बाजारों में आयोजक सुरक्षा बढ़ा रहे हैं और जो समूह आतंकवाद-रोधी नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं, उनका पंजीकरण रद्द किया जा रहा है। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में भी नववर्ष की आतिशबाजी का कार्यक्रम बॉन्डी बीच पर हुए आतंकवादी हमले के बाद रद्द कर दिया गया है।


यूरोप में क्रिसमस और नववर्ष के आयोजनों में कमी या रद्द होने का कारण क्या है? फ्रांसीसी मीडिया के डैनियल डी मार्टिनो के अनुसार, यह यूरोप में बिना उचित जांच के मुस्लिम प्रवासन का परिणाम है। यह घटनाक्रम एक गहरे संकट को उजागर करता है, जिसमें ‘उदार’ समाज खुद को विनाश की ओर ले जा रहा है। भारत इस कड़वे अनुभव का गवाह है। मैंने अपने पूर्व लेखों में भारत के इस्लाम से सदियों पुराने संबंध, देश के विभाजन और पाकिस्तान-बांग्लादेश से मिल रही चुनौतियों का उल्लेख किया है। संक्षेप में, भारतीय अनुभव यह दर्शाता है कि आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता के सामने झुकने से स्थायी शांति नहीं मिलती, बल्कि इससे उनकी रक्त की प्यास और बढ़ जाती है।


फ्रांस में मुस्लिम आबादी लगभग 60 लाख है, जो कुल जनसंख्या का करीब 9 प्रतिशत है। इतिहास बताता है कि जब मुसलमान नए क्षेत्रों में आते हैं, तो समय के साथ उनका एक वर्ग मेजबान समाज को अपनी धार्मिक अवधारणाओं के अनुसार बदलने की कोशिश करता है। यूरोप के कई देशों में ऐसा ही परिदृश्य देखने को मिलता है। ब्रिटेन का रोदरहैम कांड इसी का एक उदाहरण है, जिसमें प्रवासी मुस्लिमों ने 1500 से अधिक गैर-मुस्लिम लड़कियों का शिकार किया।


फ्रांस सहित कई यूरोपीय देश लंबे समय से इस्लामी आतंकवाद का सामना कर रहे हैं। मई 2014 में, सीरिया से आए फ्रांसीसी जिहादी ने ब्रुसेल्स के यहूदी संग्रहालय में चार लोगों की हत्या की। जनवरी 2015 में, पेरिस में चार्ली हेब्दो कार्यालय पर हमले में 12 लोग मारे गए। सबसे घातक हमला 13 नवंबर 2015 को हुआ, जब आतंकियों ने पेरिस में गोलीबारी और विस्फोट करके 130 निरपराधों को मार डाला।


जर्मनी में 21 दिसंबर 2024 को एक सऊदी डॉक्टर ने क्रिसमस पर खरीदारी कर रही भीड़ पर अपनी कार चढ़ा दी, जिसमें पांच लोगों की मौत हुई। इसी तरह, ब्रिटेन में भी मुस्लिम समूहों ने हिंदू घरों और मंदिरों पर हमले किए। यह धार्मिक हिंसा केवल यूरोप तक सीमित नहीं है, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। इस संदर्भ में पेरिस प्रशासन द्वारा अपने पारंपरिक पर्वों से समझौता करना जिहादियों के सामने घुटने टेकने जैसा है।


इस्लाम के नाम पर बार-बार आतंकवाद क्यों होता है? जिहादियों से सहानुभूति रखने वाले आमतौर पर दो तर्क देते हैं: अशिक्षा और कथित ‘अन्याय’ का प्रतिशोध। लेकिन ये दोनों ही तर्क सही नहीं हैं। इस्लामी आतंकवाद की जड़ें उस विषैली मानसिकता में हैं, जिसमें इसे धार्मिक वैधता प्राप्त होने का दावा किया जाता है। जब इस पर ईमानदारी से चर्चा होती है, तो इसे ‘इस्लामोफोबिया’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। ऐसे पूर्वाग्रहों से भरे माहौल में क्या आतंकवाद से लड़ने का कोई प्रयास सफल हो सकता है?