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संघ का शताब्दी वर्ष: भविष्य की दिशा और चुनौतियाँ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस वर्ष अपने शताब्दी वर्ष का आरंभ करने जा रहा है, जिसमें वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाने की योजना बना रहा है। संघ ने समय के साथ अपने को बदला है, लेकिन हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आई है। इस लेख में संघ के विकास, उसकी पहचान, और भविष्य की चुनौतियों पर चर्चा की गई है। क्या संघ समावेशिता और सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ेगा? जानें इस लेख में!
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संघ का शताब्दी वर्ष: भविष्य की दिशा और चुनौतियाँ

संघ का नया अभियान


Editorial | आलोक मेहता | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस वर्ष विजया दशमी (दो अक्टूबर) से अपने शताब्दी वर्ष का आरंभ करेगा, जिसमें वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाने की योजना बना रहा है। संघ ने समय के साथ अपने को बदला है, लेकिन हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आई है। इसे एक हिंदू राष्ट्रवादी स्वयंसेवी संगठन के रूप में जाना जाता है।


संघ की स्थापना और विकास

डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को संघ की स्थापना की थी। यह विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन माना जाता है, जिसमें संघ का दावा है कि इसके एक करोड़ सदस्य हैं। संघ को भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन भी माना जाता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि न केवल भारतीय समाज, बल्कि वैश्विक समुदाय भी संघ की गतिविधियों पर ध्यान दे रहा है।


संघ की पहचान और लचीलापन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छवि एक मजबूत वैचारिक और संगठनात्मक शक्ति के रूप में स्थापित है। दशकों से चलने वाली शाखाएं, अनुशासित स्वयंसेवक और सामाजिक कार्यक्रम संघ को एक विशिष्ट पहचान देते हैं। समय के साथ संघ ने अपनी छवि में लचीलापन दिखाया है, जिसमें गणवेश में बदलाव और विचारों में लचीलापन शामिल है।


भविष्य की चुनौतियाँ

संघ की असली ताकत उसकी शाखाओं में निहित है, जो भारत के हजारों गांवों और शहरों में सक्रिय हैं। पिछले दशक में शाखाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2024 के बीच लगभग 30 प्रतिशत नई शाखाएं स्थापित हुई हैं। संघ अब केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक विचारधारा और सामाजिक शक्ति बन चुका है।


संघ का ऐतिहासिक संदर्भ

1977 में, मैंने जनता पार्टी के सहअस्तित्व पर नानाजी देशमुख का पहला इंटरव्यू लिया था। उन्होंने संघ और जनसंघ के विचारों को समाजवादियों से जोड़ने की बात की थी। संघ का उद्देश्य हमेशा समतावादी समाज और जन कल्याणकारी कार्यक्रमों का समर्थन करना रहा है।


संघ की प्रार्थना और पहचान

संघ की प्रार्थना अब इसके कार्यों का अनिवार्य अंग बन चुकी है। यह प्रार्थना मातृभूमि के प्रति समर्पण और एकता का प्रतीक है। संघ की गतिविधियों में बदलावों को समझने का अवसर मिला है, जो इसे एक नई दिशा में ले जा रहा है।


निष्कर्ष

संघ की गतिविधियों में बदलाव और विकास को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि आने वाले दशकों में संघ को कई चुनौतियों का सामना करना होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या संघ समावेशिता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ेगा या अनुशासन और नियंत्रण तक सीमित रहेगा।