सुप्रीम कोर्ट का नया निर्णय: राज्यपालों के विधेयकों को लटकाने पर रोक
सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को लटकाए रखने के मामलों को न्यायालय में नहीं लाया जा सकता। इस निर्णय को शक्तियों के विभाजन की संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ माना गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों की मंजूरी के संदर्भ में अपने पूर्व निर्णय को पलट दिया है। जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता में संविधान पीठ ने यह व्यवस्था दी कि राज्यपाल के विधेयकों को लटकाने के मामलों को न्यायालय में नहीं लाया जा सकता। कोर्ट ने इसे शक्तियों के विभाजन की संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ करार दिया। इसका मतलब यह है कि अप्रैल में तमिलनाडु सरकार बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में दिए गए निर्णय पर अब कोर्ट की राय बदल गई है। पहले सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 200 की व्याख्या करते हुए कहा था कि राज्यपालों को विधानसभा से दोबारा पारित विधेयकों पर 90 दिन के भीतर सहमति देनी होगी। यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह माना जाएगा कि विधेयक को मंजूरी मिल गई है।
पिछले कुछ वर्षों में राज्यपालों के माध्यम से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में केंद्र के हस्तक्षेप की शिकायतें बढ़ी हैं। राज्यपालों ने उन विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं करके उन्हें कानून बनने से रोकने का तरीका अपनाया है, जिनसे केंद्र सहमत नहीं है। इस स्थिति से परेशान गैर-एनडीए राज्य सरकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट का अप्रैल का निर्णय एक बड़ी राहत थी। इसे फेडरिज्म की रक्षा के रूप में देखा गया, जो संविधान के बुनियादी ढांचे का एक महत्वपूर्ण पहलू है। हालांकि, इस निर्णय से केंद्र नाराज हुआ और उसने राष्ट्रपति के रेफरेंस के माध्यम से मामले को पुनः कोर्ट में भेजा।
इस बीच, केंद्र ने यह विवादास्पद तर्क भी दिया कि राज्यपालों की अपनी जन-वैधता है, जो उन्हें निर्वाचित राज्य सरकारों के निर्णयों को रोकने का अधिकार देती है। इसका मतलब है कि राज्यपालों को निर्वाचित सरकारों की वैधता पर प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को इस विवादास्पद मान्यता पर मुहर के रूप में देखा जा सकता है। इससे फेडरिज्म को लेकर नई चिंताएं उत्पन्न होंगी और यह धारणा बनेगी कि सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक व्यवस्था की व्याख्या केंद्र की सोच के अनुरूप की है।
