हिंदू चरित्र: सत्य, धर्म और आत्मसंयम की परिभाषा

चरित्रवान होने की परिभाषा
सोचिए, सवा अरब हिंदुओं में से कौन-सी पीढ़ियां वास्तव में 'चरित्रवान' शब्द का अर्थ समझती हैं? हिंदू संस्कृति में चरित्रवान होने की परिभाषा क्या है? क्या चरित्र के नैतिक नियमों का कोई केंद्र बिंदु है? गहराई से समझने पर, चरित्र और चरित्रवान होने का मूल तत्व 'सत्य' है। उपनिषदों में चरित्र का सूत्र है— 'ऋतस्य पथ'। इसका अर्थ है वह जीवन जो सत्य, धर्म और आत्मसंयम से संचालित होता है। जब मनुष्य का व्यवहार और आचरण इन तीनों से प्रभावित होता है, तब वह 'मनसा, वाचा, कर्मणा'— यानी दिल, बोलने और कार्य करने में सत्य, धर्म और आत्मसंयम का पालन करता है। ऐसे व्यक्ति का अंतःकरण नैतिकता के नियमों में ढलता है।
गुलामी के समय में भी चरित्र
यह ध्यान देने योग्य है कि हिंदू 1947 से पहले कभी भी अचरित्रवान नहीं रहे। उनके जीवन की विशेषता उनका चरित्रवान होना था। भले ही गुलामी के समय में यह विश्वास करना कठिन हो, लेकिन यही सच है कि इसी कारण सनातन सभ्यता बची रही।
स्वतंत्रता के बाद का परिवर्तन
स्वतंत्रता के बाद हिंदुओं का नैतिक ढांचा धीरे-धीरे कमजोर होता गया। चरित्र और नैतिकता को बनाए रखने वाली संस्थाएं समाप्त होने लगीं। ब्रिटिश शासन के समय का अनुशासित प्रशासन और कानूनी ढांचा भी अब भ्रष्टाचार का शिकार हो गया है।
वर्तमान स्थिति
आज के समय में, क्या हिंदू चरित्र में कोई ऐसा तत्व है जो सत्य, धर्म और आत्मसंयम के 'ऋतस्य पथ' पर चलने का संकेत देता है? क्या हम सच में उस दिशा में बढ़ रहे हैं, जहां झूठ और अहंकार का बोलबाला है?
अन्य सभ्यताओं की तुलना
अन्य सभ्यताओं ने अपने नैतिक आदर्शों को इस तरह से संस्थागत किया है कि वे आधुनिकता के झटकों के बावजूद जीवित रहें। उदाहरण के लिए, जापान ने बुशिदो को अपने आधुनिक पाठ्यक्रम में शामिल किया है। जबकि भारत में, वर्तमान सरकार ने सत्य को छोड़कर झूठ को बढ़ावा दिया है।