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क्या आंकड़ों में बदलाव से गरीबों की स्थिति में सुधार होगा?

हाल ही में विश्व बैंक ने गरीबी मापने के अपने मानकों को अपडेट किया है, जिससे गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई है। क्या इस बदलाव से वंचित लोगों की जिंदगी में कोई सुधार होगा? जानें इस लेख में आंकड़ों के पीछे की सच्चाई और सरकार की नीतियों का प्रभाव।
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क्या आंकड़ों में बदलाव से गरीबों की स्थिति में सुधार होगा?

गरीबी के आंकड़ों में बदलाव का प्रभाव

क्या आंकड़ों में बदलाव से वंचित लोगों की जिंदगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन आएगा? क्या उनके सामने मौजूद बुनियादी समस्याओं और असुरक्षाओं में सुधार होगा? हालांकि, आंकड़े तैयार करने वालों का उद्देश्य कुछ और ही है।


हाल ही में विश्व बैंक ने गरीबी मापने के अपने मानकों को “अपडेट” किया है। पहले यह मानक 2017 की परचेजिंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) पर आधारित था, जिसमें प्रति दिन 2.15 डॉलर खर्च करने की क्षमता को गरीब माना गया था। अब इसे 2021 की पीपीपी के आधार पर बढ़ाकर तीन डॉलर कर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप, पहले जहां दुनिया की नौ प्रतिशत जनसंख्या गरीब मानी जाती थी, अब यह आंकड़ा 10.5 प्रतिशत हो गया है। सोचिए, उन डेढ़ प्रतिशत लोगों के बारे में। पिछले हफ्ते की शुरुआत में वे अत्यंत गरीब नहीं थे, लेकिन सप्ताह के अंत तक उनका दर्जा बदल गया! बिना किसी वास्तविक परिवर्तन के जीवन स्तर या उपभोग क्षमता में बदलाव - यही विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का कमाल है।


अब भारत की स्थिति पर गौर करें। 2.15 डॉलर के मानक पर तीन करोड़ 37 लाख लोग (2.4 प्रतिशत जनसंख्या) अत्यंत गरीब माने जाते थे। अब यह संख्या बढ़कर सात करोड़ 52 लाख (5.3 प्रतिशत) हो गई है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व बैंक ने 2022 के भारत सरकार के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) के आंकड़ों का उपयोग किया है। इस सर्वेक्षण के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार ने सर्वेक्षण की विधि और मानदंड दोनों में बदलाव किया था। फिर भी कहा गया है कि 2011-12 में तीन डॉलर के मानक पर 27 प्रतिशत जनसंख्या गरीब थी, जबकि अब यह 5.3 प्रतिशत रह गई है। जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि बदले हुए मानदंडों के कारण उस समय के सर्वेक्षण के आंकड़ों की तुलना वर्तमान आंकड़ों से नहीं की जा सकती।


सवाल यह है कि क्या आंकड़ों में इस तरह के बदलाव से वंचित लोगों की जिंदगी में कोई सुधार होगा? क्या उनके सामने मौजूद बुनियादी समस्याओं और असुरक्षाओं में कोई बदलाव आएगा? लेकिन आंकड़े तैयार करने वालों का उद्देश्य कुछ और है। चाहे वह सरकार हो या विश्व बैंक - उनकी कोशिश यह है कि जिन नीतियों का वे समर्थन करते हैं, लोगों की नजर में उनका औचित्य बना रहे। इसलिए उनकी कसौटी अनिवार्य पौष्टिकता, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, परिवहन, स्वच्छता आदि की उपलब्धता नहीं होती। वे पीपीपी आधारित खर्च क्षमता का ऐसा जाल बुनते हैं कि आम इंसान के लिए इसे समझना मुश्किल हो जाता है।