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क्या हम मनुष्य और पशु के बीच का अंतर भूल गए हैं?

इस लेख में, लेखक ने भारत में बढ़ते प्रदूषण और जनरेशन अल्फा की स्थिति पर विचार किया है। उन्होंने बताया है कि कैसे लोग अब हवा, पानी और मिट्टी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। क्या हम मनुष्य और पशु के बीच का अंतर भूल गए हैं? क्या यह सिर्फ शब्दों का खेल है? जानिए इस लेख में और अधिक जानकारी।
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क्या हम मनुष्य और पशु के बीच का अंतर भूल गए हैं?

बुढ़ापे का अनुभव और पर्यावरण की सच्चाई

आंखें थकती नहीं हैं और दिमाग कभी नहीं रुकता। ऐसे में बुढ़ापे का अनुभव कैसा होगा?


मैं सत्तर साल का हूं, लेकिन बूढ़ा नहीं महसूस करता। मैंने लगभग पचास सालों तक भारत और इसके लोगों पर ध्यान दिया है, और यही कारण है कि हर दिन यह सवाल मेरे मन में उठता है कि क्या हम मनुष्य और पशु के बीच का अंतर समझते हैं? क्या वास्तव में कोई अंतर है या यह सिर्फ शब्दों का खेल है?


कल मैंने दिल्ली से 150 किलोमीटर दूर यात्रा की। इस सफर ने मुझे फिर से याद दिलाया कि हमारे देश में वायु प्रदूषण हर साल बढ़ता जा रहा है।


सुबह साढ़े दस बजे घर से निकला। जैसे-जैसे मैं दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे पर बढ़ा, अलवर से राजगढ़ तक धुएं की मोटी परत में सूरज मटमैला नजर आया। प्रदूषण इतना गहरा था कि एसी चलाने के बावजूद सांस लेना मुश्किल हो रहा था। गुरुग्राम से लेकर सोहना और फिरोजपुर झिरका तक ऐसा लगा जैसे शरीर धूल ही खींच रहा हो।


राजगढ़ में, लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की यात्रा के बाद, सूरज धूल-धुएं की दीवार को चीरते हुए थका हुआ लेकिन जीवित नजर आया।


इसके बाद मैंने नए अनुभव किए। एक्सप्रेसवे से नीचे उतरते ही मुझे एहसास हुआ कि आज देवउठनी ग्यारस है। गांवों की सड़कों पर आस्था और उत्सव की भीड़ थी। सामूहिक विवाह और मंदिरों की ओर जाती भीड़ के साथ लाउडस्पीकर और डीजे भी थे। लौटते समय मैंने जो देखा, वह अकल्पनीय था। जनरेशन अल्फा के बच्चे, जो अभी आठ से बारह साल के हैं, फुटपाथ के किनारे धूल में लुढ़कते हुए मंदिरों की ओर जा रहे थे।


फिर एक और सच्चाई सामने आई। जब मैं बाहर जाता हूं, तो बोतलबंद पानी लेना जरूरी होता है। अब कहीं भी सार्वजनिक पेयजल का नल नहीं दिखता। यह 'विकसित भारत' की सच्चाई है। हम एक्सप्रेसवे बना रहे हैं, लेकिन उसके किनारे पेयजल का एक नल भी नहीं है। इसलिए हर किसी के हाथ में बोतलबंद पानी की बोतल होती है।


गांवों में सड़क किनारे की गुमटियों में कोल्ड ड्रिंक की बोतलें आम हैं। मजदूर और किसान अब चाय की जगह 'डिव्यू पानी' पीते हैं। यह 'अमृतकाल' है, जहां गरीब भी पैकेज बोतल का सोडा पी रहा है।


दिल्ली के पॉश वसंत कुंज में भी पानी की टंकियों के सूने इलाके में युवा पीढ़ी के चेहरे दिखते हैं।


वसंत कुंज में मैंने हाल ही में बच्चों को हैलोवीन मनाते देखा। एक दिन पहले, डेढ़ सौ किलोमीटर दूर, मिट्टी में लुढ़कते बच्चों के चेहरे भी देखे।


इन सभी दृश्यों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हम आखिर कैसे हैं, जहां हवा, मिट्टी और पानी की स्थिति इतनी खराब है।


जब मैं पैदा हुआ था, तब मैंने लोगों के संघर्ष को सुना था। अब लोग हवा, पानी और मिट्टी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।


मैं कुछ खेती भी करता हूं। यह मुझे बताता है कि भारत की मिट्टी अब रसायनों से भरी हुई है।


कुछ महीने पहले मैंने एक डायटीशियन से पूछा कि क्यों मेरे बुजुर्ग स्वस्थ हैं जबकि मैं डायबिटिक हूं। उनका जवाब था कि उनके खानपान में प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ नहीं थे।


यह कहानी तब और अब के फर्क को दर्शाती है।


अब सवाल यह है कि कब अंबानी-अडानी भारत के लोगों को ऑक्सीजन सप्लाई करना शुरू करेंगे? कब हमें शुद्ध जल मिलेगा?


जब सरकार वीवीआईपी के लिए जल भंडारण कर सकती है, तो आम लोगों के लिए कब यह संभव होगा? हर शहर पीने के पानी के लिए तरस रहा है।


सोचें, बीस-तीस साल बाद भारत की जनसंख्या बढ़ने पर पानी, हवा और मिट्टी की स्थिति कैसी होगी?


लेकिन सच यह है कि अब किसी को फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली का गैस चेंबर हर साल नया रिकॉर्ड बनाता है, लेकिन लोग क्या करते हैं? सेल्फी लेते हैं।


इसलिए हमें हवा, पानी और मिट्टी पर ध्यान देना चाहिए।