ग़ाज़ा में अकाल: एक मानवता के लिए शर्मनाक स्थिति

ग़ाज़ा में अकाल की स्थिति
हम एक असाधारण समय में जी रहे हैं, जहाँ इक्कीसवीं सदी की खबरें चौंकाने वाली हैं। स्पष्ट रूप से कहा जा रहा है कि ग़ाज़ा में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। क्या इसमें कोई बदलाव आएगा? सवाल पूछने से पहले ही उत्तर स्पष्ट है: नहीं। यही इस समय की असाधारणता और क्रूरता है।
भूखमरी का नया रूप
भूखमरी और अकाल अतीत में सामान्य घटनाएँ थीं, जो असफल मानसून या टिड्डियों के हमलों के कारण होती थीं। लेकिन अब, इक्कीसवीं सदी में, यह मानवता के हाथों से उत्पन्न हो रही है। नाकेबंदी और घेराबंदी के कारण भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो रही है। यह एक प्रकार का हथियार बन गया है, जो सुनियोजित और युद्ध की रणनीति के तहत उपयोग किया जा रहा है।
इतिहास की यादें
भारत का 1943 का बंगाल अकाल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की लापरवाही का परिणाम था। जब सरकारी गोदामों में चावल सड़ रहे थे, तब लाखों भारतीय भूख से मर रहे थे। चर्चिल ने इस पर ताना मारा था। यह एक उपनिवेशीय नरसंहार था, जो सुनियोजित और लंबे समय तक चला।
ग़ाज़ा का वर्तमान
आज ग़ाज़ा में भूख की स्थिति भोजन की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि जानबूझकर भोजन से वंचित करने का परिणाम है। नेतन्याहू की नाकेबंदी चर्चिल की नीतियों की याद दिलाती है। वैश्विक आक्रोश भी खोखला है, क्योंकि बम गिरने के बावजूद कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो रही है।
भारत और वैश्विक प्रतिक्रिया
भारत भी इस स्थिति पर चुप है। इतिहास ने हमें सिखाया है कि हमें एक-दूसरे के प्रति क्रूर नहीं होना चाहिए। लेकिन आज भी वही निर्ममता और निर्दयता दोहराई जा रही है।
भविष्य की चिंताएँ
इतिहास हमें याद दिलाता है कि यह नया नहीं है। दुनिया ने पहले भी ऐसे अकाल देखे हैं, लेकिन हर बार राजनीति ने इसे दबाया है। अब ग़ाज़ा भी उसी शर्मनाक सूची में शामिल हो गया है।
असाधारण समय की वास्तविकता
आज हम असाधारण समय में जी रहे हैं, लेकिन यह असाधारणता शर्मनाक है। ग़ाज़ा में भूख अब सरकारों का हथियार बन गई है। इक्कीसवीं सदी की असली त्रासदी यही है कि भूखमरी अब भी मौजूद है, और मानवता इसके निर्माण में सहभागी है।