नेपाल में राजनीतिक संकट: क्या वैश्विक ताकतें हैं इसके पीछे?

नेपाल में राजनीतिक संकट का उदय
नेपाल में राजनीतिक संकट: पिछले तीन वर्षों में भारत के पड़ोसी देशों में सरकारों के गिरने की घटनाओं ने दक्षिण एशिया की राजनीति में अस्थिरता को जन्म दिया है। श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद अब नेपाल भी इसी दिशा में बढ़ता नजर आ रहा है। हाल की घटनाओं में नेपाल में जनविरोध, नेताओं के इस्तीफे और सरकारी इमारतों में आगजनी के दृश्य देखने को मिले हैं। यह सवाल उठता है कि क्या यह केवल घरेलू असंतोष का नतीजा है या इसके पीछे वैश्विक शक्तियों की कोई साजिश है। आइए इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा करते हैं।
सोशल मीडिया बैन से शुरू हुआ जनाक्रोश
सोशल मीडिया पर प्रतिबंध का प्रभाव:
नेपाल में जनाक्रोश की शुरुआत सरकार के एक विवादास्पद निर्णय से हुई, जिसमें सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रतिबंध लगाया गया। इस निर्णय के बाद युवा और छात्र सड़कों पर उतर आए और भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और वंशवादी राजनीति के खिलाफ आवाज उठाने लगे। आंदोलन इतना बढ़ गया कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल को इस्तीफा देना पड़ा। खबरों के अनुसार, ओली जल्द ही देश छोड़कर दुबई भाग सकते हैं।
क्या सोशल मीडिया बैन ही विद्रोह का कारण था?
प्रदर्शन जारी रहने का कारण:
सरकार द्वारा बैन हटाए जाने के बावजूद प्रदर्शन जारी रहे। काठमांडू में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों के निजी निवासों पर हमले किए। यहां तक कि सत्ताधारी पार्टी के एक नेता के स्वामित्व वाले हिल्टन होटल को भी आग लगा दी गई। यह कोई नई घटना नहीं है; 2022 में श्रीलंका और 2024 में बांग्लादेश में भी ऐसे ही दृश्य देखे गए थे।
बाहरी ताकतों की भूमिका?
अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष:
इन घटनाओं में एक समानता है: जनता का आक्रोश, युवाओं का नेतृत्व और नेताओं का पलायन। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में उठी यह लहर केवल घरेलू कारणों से नहीं, बल्कि अमेरिका और चीन के बीच क्षेत्रीय वर्चस्व की लड़ाई का हिस्सा भी हो सकती है।
केपी शर्मा ओली का चीन के प्रति झुकाव
चीन समर्थक नेता:
नेपाल के संदर्भ में, केपी शर्मा ओली को चीन समर्थक माना जाता है। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा भारत के बजाय चीन की की, जहां उन्होंने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत आर्थिक सहायता प्राप्त की। यह चीन की दक्षिण एशिया में प्रभाव बढ़ाने की रणनीति का हिस्सा है।
अमेरिकी हस्तक्षेप और राजनीतिक तनाव
मिलेनियम चैलेंज कॉम्पैक्ट:
अमेरिका ने नेपाल में 'मिलेनियम चैलेंज कॉम्पैक्ट' के तहत 500 मिलियन डॉलर की सहायता को पुनर्जीवित किया। यह योजना बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए थी, लेकिन इसे अमेरिकी हस्तक्षेप के रूप में देखा गया। राजनीतिक विश्लेषक SL Kanthan ने इसे '100% अमेरिका द्वारा रचित' बताया है।
बांग्लादेश और श्रीलंका के अनुभव
राजनीतिक अस्थिरता के समान संकेत:
बांग्लादेश में भी पिछले वर्ष अमेरिका और प्रधानमंत्री शेख हसीना के बीच तनाव बढ़ा था। अमेरिका ने उनके चुनाव को 'गैर-विश्वसनीय' बताया था। श्रीलंका में भी राजपक्षे सरकार भारी कर्ज में डूबी थी। नेपाल की स्थिति अब लगभग वैसी ही होती जा रही है।
राजनीतिक थकावट और नेतृत्व का संकट
नेतृत्व में निरंतर बदलाव:
नेपाल में 2008 से अब तक 14 बार सरकारें बदल चुकी हैं। ओली, प्रचंड और देउबा जैसे नेता लगातार सत्ता में आते-जाते रहे हैं, लेकिन उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। युवाओं में निराशा और गुस्सा बढ़ता जा रहा है। हाल ही में शुरू हुआ 'Nepokid' कैंपेन इसी गुस्से का उदाहरण है।
नए विकल्प की तलाश
राजशाही की वापसी की मांग:
राजशाही की वापसी की मांग और राजनीतिक विफलताओं से निराश होकर लोग अब नए विकल्प की तलाश कर रहे हैं। यह संकेत है कि जनता अब किसी नए विकल्प की तलाश में है, चाहे वह लोकतंत्र के बाहर से ही क्यों न हो।
क्या नेपाल वैश्विक राजनीति का अगला शिकार है?
असंतोष का विस्फोट:
नेपाल में जो हो रहा है, वह केवल सोशल मीडिया बैन की प्रतिक्रिया नहीं है। यह वर्षों से चल रहे असंतोष, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और राजनीतिक अस्थिरता का विस्फोट है। जैसे श्रीलंका और बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ, वैसे ही नेपाल में भी सत्ता के गलियारे बदलने के संकेत हैं।