भारत में बेरोजगारी के आंकड़ों पर उठे सवाल: अर्थशास्त्रियों की राय

भारत में बेरोजगारी की वास्तविकता
भारत में रोजगार की परिभाषा सरकारी मानकों के अनुरूप नहीं है। इस कारण, जो आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं, उनकी तुलना अन्य देशों के साथ नहीं की जा सकती।
एक समाचार एजेंसी द्वारा किए गए सर्वे में 50 स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों से भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर विचार किया गया। इस सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि सरकारी आंकड़े वास्तविकता को सही तरीके से नहीं दर्शाते हैं। वास्तव में, ये आंकड़े बेरोजगारी और अर्ध-रोजगार की गंभीरता को छिपाने का काम कर रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत, जो वर्तमान में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है (जनवरी-मार्च में 7.4 प्रतिशत की वृद्धि दर), फिर भी पर्याप्त संख्या में नियमित नौकरियां उत्पन्न करने में असफल है। हर साल लाखों युवा रोजगार बाजार में प्रवेश कर रहे हैं।
सर्वे में शामिल 37 अर्थशास्त्रियों ने यह भी कहा कि वास्तविक बेरोजगारी दर सरकारी आंकड़ों से दोगुनी हो सकती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जून में बेरोजगारी दर 5.6 प्रतिशत थी। विशेषज्ञों का कहना है कि समस्या रोजगार की परिभाषा में निहित है। भारत में, एक व्यक्ति को यदि सप्ताह में एक घंटा भी काम मिलता है, तो उसे रोजगार-शुदा माना जाता है। इसके अलावा, कृषि जैसे घरेलू कार्यों में मदद करने वाली महिलाओं को भी रोजगार में शामिल किया जाता है, जबकि उन्हें इसके लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता।
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव का यह कथन महत्वपूर्ण है: ‘बेरोजगारी हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है और सरकारी आंकड़े वास्तविकता को सही तरीके से नहीं दर्शाते।’ यह पहली बार नहीं है जब इस तरह की बातें सामने आई हैं। भारत सरकार के रोजगार और अन्य आर्थिक आंकड़ों पर संदेह का वातावरण लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन इससे मोदी सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसा कि एक विशेषज्ञ ने पहले कहा था, मौजूदा सरकार का उद्देश्य अर्थव्यवस्था नहीं, बल्कि आर्थिक सुर्खियों को चमकाना है।