भाषा और सत्ता: हिंदी का बदलता स्वरूप

भाषा का महत्व और सत्ता की पहचान
हर युग की अपनी एक विशिष्ट भाषा होती है, और हर शासन अपने समय की भाषा से पहचाना जाता है। यदि हम मैकाले के अंग्रेजी शासन, नेहरू के स्वतंत्र भारत, और वर्तमान में नरेंद्र मोदी के 'न्यू इंडिया' की भाषा पर ध्यान दें, तो क्या यह अंतर देश और सभ्यता की पहचान या गिरावट का संकेत नहीं है?
मैकाले का मिशन
मैकाले की अंग्रेज़ी केवल एक भाषा नहीं थी, बल्कि यह भारत को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की योजना का हिस्सा थी। इसका उद्देश्य एक ऐसा भारतीय वर्ग तैयार करना था जो रंग और रक्त में देसी हो, लेकिन सोच और नैतिकता में पूरी तरह से अंग्रेज़। इस मिशन ने फारसी और संस्कृत को शिक्षा से बाहर कर दिया और हिंदी को एक सीमित लोकभाषा बना दिया।
भारत और पाकिस्तान का निर्माण
पाकिस्तान में जिन्ना और लियाकत अली ने वही भूमिका निभाई जो भारत में नेहरू और पटेल ने की। दोनों ही मैकाले के मिशन के परिणाम थे, जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के दो राष्ट्रों का निर्माण किया।
हिंदी का राजभाषा बनना
जब नेहरू और पटेल ने हिंदी को राजभाषा घोषित किया, तब उन्हें हिंदी लिखना नहीं आता था। संविधान की भाषा अंग्रेज़ी थी, और इस प्रकार हिंदी का राजभाषा बनना केवल एक प्रतीकात्मक कदम था।
भाषा में बदलाव
1947 से लेकर मनमोहन सिंह के समय तक, भारत की सरकारी भाषा संवेदनशील रही। प्रधानमंत्री शब्दों का चयन सोच-समझकर करते थे। लेकिन 2014 के बाद, हिंदी की भाषा में बदलाव आया है। अब यह मिथ्याचार की भाषा बन गई है।
वर्तमान हिंदी की स्थिति
अब हिंदी अहंकार और सत्ता का प्रतीक बन गई है। यह भाषा अब संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि धमकी देने का साधन बन गई है।
भाषा का सामाजिक प्रभाव
हिंदी अब सार्वजनिक जीवन में गुंडई का पर्याय बन गई है। यह एक गहरे असंतोष और हताशा की आवाज़ है, जो उस सत्ता के खिलाफ है जो हिंदी को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
भाषा की तुलना
मैकाले ने यह नहीं कहा था कि भारत में हिंदी बोलने वाले शर्मिंदा होंगे। अंग्रेज़ी को गुंडई से नहीं फैलाया गया, बल्कि इसे ज्ञान और बुद्धिमत्ता के माध्यम से फैलाया गया।
भविष्य की दिशा
हिंदी का वर्तमान स्वरूप एक चुनौती है। यह केवल एक भाषा नहीं, बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक पहचान का प्रतीक बन गई है।