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राजस्थान में सरकारी स्कूलों की लापरवाही से बच्चों की जानें जा रही हैं

राजस्थान में सरकारी स्कूलों की लापरवाही के कारण हाल ही में दो बच्चों की जानें गई हैं। जैसलमेर में एक छात्र अरबाज़ खान की मौत एक जर्जर गेट गिरने से हुई, जबकि झालावाड़ में एक स्कूल की इमारत गिरने से सात बच्चों की जान चली गई। इन घटनाओं ने शिक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर किया है। क्या सरकार इन लापरवाहियों को गंभीरता से लेगी? जानें पूरी कहानी में।
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राजस्थान में शिक्षा व्यवस्था की खामियां

राजस्थान में सरकारी स्कूल अब शिक्षा के बजाय लापरवाही का प्रतीक बनते जा रहे हैं। हाल ही में दो अलग-अलग जिलों में बच्चों की जानें स्कूल की खराब व्यवस्था के कारण चली गईं। यह केवल इमारतों की मजबूती का मुद्दा नहीं है, बल्कि उस सरकारी तंत्र का भी है जो बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने में असफल रहा है।


जैसलमेर में सोमवार को पूणमनगर गांव के राजकीय बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय में एक दुखद घटना घटी। स्कूल की छुट्टी के बाद अचानक एक भारी गेट गिरने से 9 वर्षीय छात्र अरबाज़ खान की मौके पर ही मौत हो गई। यह जानकर हैरानी होती है कि अरबाज़ पहली कक्षा का छात्र था और उसकी मौत स्कूल प्रशासन की लापरवाही के कारण हुई।


स्थानीय लोगों का कहना है कि स्कूल प्रशासन को गेट की खराब स्थिति के बारे में जानकारी थी, लेकिन इसे नजरअंदाज किया गया। जैसे ही छुट्टी की घंटी बजी, बच्चे बाहर निकलने लगे और तभी जर्जर गेट गिर पड़ा। गांववालों ने शव के साथ धरना देकर प्रशासन से सख्त कार्रवाई की मांग की है।


इसी तरह की एक और घटना तीन दिन पहले झालावाड़ में हुई थी, जहां एक सरकारी स्कूल की इमारत गिरने से सात बच्चों की जान चली गई। दोनों घटनाओं में लापरवाही और निगरानी की कमी एक समान है।


झालावाड़ की घटना के बाद राज्य सरकार ने शिक्षा विभाग को नए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसमें स्कूल भवनों का तत्काल निरीक्षण और GIS टैगिंग जैसे कदम उठाने की बात कही गई है। लेकिन जैसलमेर की घटना यह दर्शाती है कि कागज़ पर उठाए गए कदम वास्तविकता में प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं।


हर हादसे के बाद एक रिपोर्ट और सर्वे होता है, लेकिन क्या अरबाज़ की मौत को भी केवल एक आंकड़ा मान लिया जाएगा? क्या सरकार यह समझ पाएगी कि स्कूलों की दीवारें केवल ईंटों से नहीं बनतीं, बल्कि उस भरोसे से बनती हैं जो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजते समय रखते हैं? शिक्षा व्यवस्था की ‘मरम्मत’ कब होगी?