सोशल मीडिया पर फैलती अफवाहें: कैसे बनते हैं पड़ोसी दुश्मन?

राष्ट्रीय समाचार:
राष्ट्रीय समाचार: अक्सर यह प्रक्रिया कुछ शब्दों के टाइप करने से शुरू होती है। एक साधारण टिप्पणी, कभी अनजाने में तो कभी जानबूझकर, तेजी से साझा की जाती है। कुछ ही समय में, स्क्रीनशॉट्स की संख्या बढ़ जाती है। व्हाट्सएप ग्रुप और फेसबुक पेज इसे आगे बढ़ाते हैं। जो बात नजरअंदाज की जा सकती थी, वह अचानक गर्व और गुस्से का विषय बन जाती है। शाम होते-होते, सुबह की शांति भरी सड़कें बहस और आरोप-प्रत्यारोप से गर्म हो जाती हैं। कई बार तो पोस्ट पूरी तरह से झूठी होती है, जिसे अनजान लोगों द्वारा बनाया गया होता है।
सोशल मीडिया का प्रभाव
पुरानी तस्वीरों को नए कैप्शन के साथ साझा किया जाता है, वीडियो को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है, और भड़काने वाली कहानियों को फिर से लिखा जाता है। सच्चाई से अनजान लोग बिना जाँचे इन्हें आगे बढ़ा देते हैं। कुछ ही घंटों में गुस्सा भड़क उठता है। सोशल मीडिया झूठ का लाउडस्पीकर बन जाता है, और आम जनता निशाना बन जाती है।
रातोंरात पड़ोसी बन गए विरोधी
कस्बों और गाँवों में, जो लोग पहले शांति से रहते थे, वे अचानक एक-दूसरे पर सवाल उठाने लगते हैं। जो समुदाय मिलकर त्योहार मनाते थे, वे खुद को अलग-थलग पाते हैं। एक वायरल संदेश भरोसे को शक में बदल देता है। चाय की दुकान पर हुई बातचीत गरमागरम झगड़े में बदल जाती है। परिवार बच्चों को बाहर न निकलने के लिए कहते हैं। डर हकीकत से भी तेजी से फैलता है, और रिश्ते टूटने लगते हैं।
अफवाहें तथ्यों से ज़्यादा तेज़ी से फैलती हैं
पुलिस के बयान, आधिकारिक स्पष्टीकरण, और समाचार रिपोर्ट भी देर से आती हैं। जब तक सच्चाई सामने आती है, झूठ पहले ही नुकसान पहुँचा चुका होता है। एक अफवाह, सुधार से दस गुना तेजी से फैलती है। इसीलिए इन संदेशों पर नियंत्रण पाना इतना मुश्किल हो जाता है। एक बार विश्वास टूट जाए, तो सच्चाई सामने आने के बाद भी, संदेह बना रहता है।
वायरल क्रोध के वैश्विक उदाहरण
यह समस्या केवल भारत में नहीं है। नेपाल में भी फ़र्ज़ी पोस्टों के कारण हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए थे। लद्दाख में पुराने वीडियो ने नए तनाव को जन्म दिया। हाल ही में, मेडागास्कर में सरकारी भ्रष्टाचार की अफ़वाह फैलने के बाद छात्रों ने टैंकों से झड़प की। हर उदाहरण दिखाता है कि डिजिटल गुस्से की कोई सीमा नहीं होती। दुनिया केवल तकनीक से ही नहीं, बल्कि गलत सूचनाओं से भी जुड़ी हुई है।
डिजिटल जिम्मेदारी का समय
विशेषज्ञों का मानना है कि अब समय आ गया है कि लोग "फ़ॉरवर्ड" बटन दबाने से पहले सोचें। समाज को शांत रखने में हर नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण है। अफ़वाहों को पहले फ़ोन पर ही रोका जा सकता है। सरकारें चैनल बंद कर सकती हैं, लेकिन शांति लोगों पर निर्भर करती है। अगर स्क्रीन पर छपे शब्द शहरों में आग लगा सकते हैं, तो ज़िम्मेदार हाथ आग को दूर भी रख सकते हैं।