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अरावली पर्वतमाला: खनन विवाद और पर्यावरणीय चिंताएं

अरावली पर्वतमाला, जो भारत की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के कारण चर्चा में है। इस निर्णय ने पहाड़ों की परिभाषा को लेकर विवाद को फिर से जीवित कर दिया है। अवैध खनन, घटते जल स्तर और पर्यावरणीय चिंताओं के बीच, जानें कि कैसे यह मुद्दा राजनीति और विकास से भी जुड़ गया है। क्या अरावली सुरक्षित रहेगी या विकास की बलि चढ़ेगी? इस लेख में जानें पूरी कहानी।
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अरावली पर्वतमाला: खनन विवाद और पर्यावरणीय चिंताएं

अरावली पर्वतमाला का महत्व


अरावली पर्वतमाला भारत की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक मानी जाती है। यह केवल पहाड़ों का समूह नहीं है, बल्कि उत्तर भारत के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय ढाल भी है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ने अरावली को फिर से चर्चा में ला दिया है, जिसने पहाड़ों की परिभाषा को लेकर पुराने विवाद को फिर से जीवित कर दिया है। इसका प्रभाव राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में महसूस किया जा रहा है।


अरावली में अवैध खनन की समस्या

अरावली क्षेत्र में अवैध खनन की समस्या 1990 के दशक में सामने आई। संगमरमर और ग्रेनाइट की बढ़ती मांग के कारण पहाड़ियों को तेजी से काटा जाने लगा, जिससे कई स्थानों पर पहाड़ गायब हो गए और भूजल स्तर में गिरावट आई। पर्यावरणीय नुकसान बढ़ने पर मामला न्यायालय तक पहुंचा, और सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार इस पर हस्तक्षेप किया।


खनन पर रोक लगाने की पहली कोशिश

2002 में, सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने हरियाणा और राजस्थान के कुछ हिस्सों में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश की। रिपोर्ट में कहा गया कि खनन से पर्यावरण को गंभीर नुकसान हो रहा है। इसके बाद, अरावली क्षेत्र में खनन पर सख्त प्रतिबंध लगाया गया, हालांकि कुछ पुराने पट्टों को शर्तों के साथ राहत दी गई।


सुप्रीम कोर्ट का प्रारंभिक दृष्टिकोण

राजस्थान सरकार ने खनन पर रोक को चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा पट्टों पर सीमित खनन की अनुमति दी। कोर्ट का मानना था कि विकास के लिए संतुलन आवश्यक है। हालांकि, पर्यावरण समूहों ने इसे अपर्याप्त बताया और अरावली को पूरी तरह से सुरक्षित क्षेत्र घोषित करने की मांग की।


मर्फी फॉर्मूले से विवाद बढ़ा

2003 में, एक समिति ने अमेरिकी विशेषज्ञ रिचर्ड मर्फी के सिद्धांत के आधार पर अरावली की परिभाषा निर्धारित की। इसके अनुसार, केवल 100 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली माना गया, जिससे कई निम्न ऊंचाई वाले क्षेत्र खनन के लिए खुल गए। यह फॉर्मूला विवाद का कारण बना।


सरकार के बदलने पर भी खनन जारी

राजस्थान में सत्ता परिवर्तन के बावजूद, मर्फी फॉर्मूले के आधार पर खनन गतिविधियां जारी रहीं। खनन से राजस्व में वृद्धि हुई, लेकिन इसके साथ ही पर्यावरणीय असंतुलन भी बढ़ा। कई क्षेत्रों में जंगलों का क्षेत्र घटने लगा और वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास प्रभावित हुआ।


सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

2005 में, पर्यावरण संगठनों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नए खनन पट्टों पर रोक लगा दी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बिना पर्यावरणीय मूल्यांकन के किसी भी खनन गतिविधि की अनुमति नहीं दी जाएगी। यह निर्णय अरावली के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण माना गया।


हरियाणा में पूर्ण प्रतिबंध

2009 में, सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात में खनन पर पूरी तरह से रोक लगा दी। यह निर्णय अवैध खनन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ और इससे अरावली के कुछ हिस्सों को राहत मिली।


फॉरेस्ट सर्वे रिपोर्ट का खुलासा

2010 में, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में बताया गया कि राजस्थान के कई जिलों में अरावली की पहाड़ियां तेजी से समाप्त हो रही हैं। इस रिपोर्ट के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को अरावली की स्पष्ट परिभाषा तय करने के निर्देश दिए।


नई परिभाषा से बढ़ी चिंताएं

2025 में, केंद्र सरकार ने अरावली की नई परिभाषा अधिसूचित की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने लागू किया। इसके अनुसार, केवल 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची पहाड़ियों को अरावली माना जाएगा। पर्यावरणवादियों का कहना है कि इससे अरावली का बड़ा हिस्सा खनन के लिए खुल सकता है, जिसका प्रभाव दिल्ली-एनसीआर तक पड़ेगा।


भविष्य की दिशा

अरावली का विवाद अब केवल पर्यावरण से नहीं, बल्कि राजनीति और विकास से भी जुड़ गया है। एक ओर खनन लॉबी है, तो दूसरी ओर पर्यावरण संगठन। आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट और सरकार के निर्णय यह तय करेंगे कि अरावली सुरक्षित रहेगी या विकास की बलि चढ़ेगी।