क्या मोदी की छवि में बदलाव आ रहा है? एक नई कहानी की शुरुआत

प्रधानमंत्री मोदी की बदलती छवि
मैंने यह लिखने का मन नहीं बनाया था, लेकिन सोचते-सोचते यह सवाल उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असहज क्यों नजर आ रहे हैं? यह सवाल उनके नेतृत्व के बारे में नहीं है, बल्कि उनकी छवि और वर्तमान स्थिति के बारे में है। वे भले ही शांत और आत्मविश्वास से भरे दिखते हों, लेकिन कुछ अलग सा महसूस हो रहा है। जब कहानी दोहराई जाने लगे और पटकथा में भीड़ बढ़ जाए, तो संवाद की धार कमजोर पड़ जाती है। जो कहानी पहले बिजली की तरह चमकती थी, वह अब थकी हुई और बेचैन सी लगती है।
मोदी का राजनीतिक सफर
पिछले एक दशक से अधिक समय से, नरेंद्र मोदी केवल प्रधानमंत्री नहीं रहे हैं, बल्कि वे भारत की केंद्रीय कथा बन गए हैं। हर संकट उनके लिए एक संकेत रहा है, और हर चुप्पी एक स्क्रिप्ट। लेकिन अब कुछ गड़बड़ सा लगता है। वे टूटे नहीं हैं, लेकिन बेमेल हो गए हैं। जैसे कोई मशीन, जो वर्षों तक बेदाग़ चली हो, अब झटके खाने लगी हो।
बदला हुआ माहौल
हालात में बदलाव आया है, न संस्थानों में, न वोटरों में, लेकिन माहौल में जरूर। अजीब सा महसूस हो रहा है। हेडलाइंस अब खोखली लगती हैं। ट्रंप की टैरिफ वॉर से लेकर ऑपरेशन सिंदूर की नाटकीय चूक तक—सरकारी प्रतिक्रियाएं अब बेसुरी और असरहीन लगने लगी हैं।
मोदी का प्रभाव
एक समय था जब नरेंद्र मोदी केवल सत्ता में नहीं थे—वे खुद सत्ता थे। 2014 में उन्होंने भारत को जीता नहीं, बल्कि छीन लिया। उन्होंने एक नए भारत का वादा किया—निर्णायक और मर्दाना। वे बोलते नहीं थे, बल्कि घोषणाएं करते थे। जटिलताओं से थकी जनता को उनकी स्पष्टता एक मुक्ति जैसी लगती थी।
कथा का अंत?
लेकिन हर मिथक की एक सीमा होती है। जब नयापन दोहराव में बदल जाए, तो कथाकार ही कहानी खो देता है। 2024 के चुनावों में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जिससे मोदी की अजेयता का भ्रम भी टूटा। संसद फिर से शोरगुल से भरी, विपक्ष को आवाज़ मिली।
आत्मविश्वास की कमी
22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए बर्बर हमले के बाद ऑपरेशन सिंदूर लॉन्च हुआ। चार दिन तक टीवी पर नाटकीय दृश्य दिखाए गए, लेकिन तथ्यों ने साथ नहीं दिया। जब युद्धविराम की घोषणा हुई, तो वह भारत की ज़मीन से नहीं, अमेरिका की जुबान से हुई।
बदलते रिश्ते
मोदी की विदेश नीति अब खुद ही बिखरती लग रही है। देश के भीतर भी हवा बदली है। शहरी मतदाता, जो पहले सम्मोहित थे—अब झिझक रहे हैं। यकीन दरक रहा है। मीडिया, जो अब भी वफादार है, लेकिन जोश कम हो गया है।
क्या मोदी की आभा फीकी पड़ रही है?
यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि भारत अब पोस्ट-मोदी दौर में प्रवेश कर चुका है। लेकिन एक सूक्ष्म बदलाव ज़रूर है। जो मोदी कभी व्यवस्था को झकझोरने वाले थे, अब उसी व्यवस्था का हिस्सा बनते दिख रहे हैं। यह असली परीक्षा का समय है।
निष्कर्ष
जब कोई ताक़तवर नेता अपनी आभा खोता है, तो वह केवल कमजोर नहीं होता, बल्कि नज़र आने लगता है। और जब कोई व्यक्तित्व-निर्भर राष्ट्र अपने ही केंद्र से खोखला होने लगे, तो विरोधाभास सामने आने लगते हैं। असली सवाल यह है—क्या मोदी की आभा अब भी जस की तस है? या फिर वह जादू—धीमे, लेकिन साफ़ तौर पर—टूटने लगा है?