जापान की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं साने ताकाइची, जानें उनके विचार और चुनौतियाँ

साने ताकाइची का ऐतिहासिक चुनाव
जापान की सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी में हुए मतदान में साने ताकाइची ने जीत हासिल की है। यह जीत उन्हें जापान की पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करती है। प्रधानमंत्री बनने के बाद, उन्होंने सम्राट नारुहितो से मुलाकात की, जिससे उनके ऐतिहासिक महत्व को और बढ़ावा मिला है।
साने ताकाइची की पृष्ठभूमि
64 वर्षीय ताकाइची ने 1990 के दशक में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी में कदम रखा। उनका जन्म नारा प्रांत में हुआ और उन्होंने कोबे विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उनका पालन-पोषण अन्य वरिष्ठ नेताओं की तुलना में अधिक साधारण रहा है।
राजनीतिक करियर
ताकाइची को दिवंगत प्रधानमंत्री शिंजो आबे की प्रमुख शिष्या माना जाता है। उन्होंने आबे और पूर्व प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के मंत्रिमंडलों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं।
ताकाइची के विचार
ताकाइची को उनके मजबूत रूढ़िवादी विचारों के लिए 'जापान की लौह महिला' कहा जाता है। वह दिवंगत ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की प्रशंसक हैं।
1. आर्थिक नीतियाँ: वह आबे की आर्थिक नीतियों का समर्थन करती हैं, जिसमें सरकारी खर्च बढ़ाना और बड़े सुधार शामिल हैं।
2. सामाजिक और सुरक्षा मुद्दे: वह समलैंगिक विवाह का विरोध करती हैं और आव्रजन पर कड़ा रुख रखती हैं।
3. विदेश नीति: उन्हें 'चीनी बाज' के रूप में जाना जाता है और वह ताइवान जलडमरूमध्य में मजबूत सैन्य उपस्थिति का समर्थन करती हैं।
4. विवादास्पद यात्राएँ: उन्होंने यासुकुनी तीर्थस्थल का दौरा किया है, जो विवादास्पद माना जाता है।
ताकाइची की जीत का महत्व
विशेषज्ञों का मानना है कि ताकाइची की जीत से जापान में रूढ़िवादी शासन को बढ़ावा मिलेगा। वह जापान की रक्षा शक्ति को मजबूत करने की इच्छुक हैं, लेकिन सामाजिक कल्याण प्रणाली में कोई बड़ा बदलाव नहीं करेंगी।
एक विशेषज्ञ के अनुसार, ताकाइची सुरक्षा, चीन के प्रति सख्ती और अमेरिका-जापान संबंधों की मजबूती का प्रतीक हैं।
चुनौतियाँ
ताकाइची के लिए प्रधानमंत्री बनने का सफर आसान नहीं होगा। उन्हें जापान के जीवन-यापन के बढ़ते संकट, अमेरिकी व्यापार युद्धों और चीन-उत्तर कोरिया से संबंधित सुरक्षा चिंताओं का सामना करना पड़ेगा।
विशेषज्ञों का कहना है कि सत्ता में बने रहने के लिए, उन्हें अपने कुछ कठोर विचारों को नरम करना पड़ सकता है, अन्यथा उन्हें अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ सकता है।