नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के 11 साल: एक निराशाजनक यात्रा

संसद का अर्थ और मोदी का प्रभाव
नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को पुण्य या पाप के रूप में देखना संभव है, लेकिन यह स्पष्ट है कि उनके नेतृत्व में अर्थव्यवस्था और समाज की स्थिति में गिरावट आई है। चाहे वह संसद का सत्र हो, लाल किले पर प्रधानमंत्री का भाषण हो, या अन्य महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ, सब कुछ अब औपचारिकता बनकर रह गया है। हाल ही में संसद का सत्र समाप्त हुआ, लेकिन क्या इसका कोई वास्तविक महत्व है? 2014 में संसद की कार्यप्रणाली और अब की स्थिति में बड़ा अंतर है। अब संसद केवल हंगामे और स्थगन का प्रतीक बन गई है। स्पीकर की कुर्सी पर ओम बिड़ला या जगदीप धनखड़, क्या वे किसी सकारात्मक बदलाव का प्रतीक हैं?
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के भाषणों की प्रभावशीलता
15 अगस्त की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का भाषण सुनने वाले कितने लोग थे? क्या यह भाषण लोगों में जोश भरने में सफल रहा? अगले दिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भाषण दिया, तो क्या उसमें कुछ नया था? 2014 के 15 अगस्त के भाषण की तुलना में 2025 के भाषण में क्या अंतर है?
आरएसएस और मोदी का संबंध
मोदी ने आरएसएस को महान बताया, लेकिन क्या यह संगठन अब भी उतना प्रभावी है? क्या आरएसएस और भाजपा को मोदी की जरूरत है? क्या वे आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को पूरा कर पाएंगे? लाल किले से आत्मनिर्भरता का संदेश देना केवल एक दिखावा है।
प्रधानमंत्री पद की आभा का ह्रास
स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने अपने पद की आभा को इस तरह खोया हो। एचडी देवगौड़ा और मनमोहन सिंह के समय में भी लाल किले से दिए गए भाषणों को गंभीरता से सुना जाता था। अब स्थिति यह है कि विपक्ष के नेता भी वहां उपस्थित नहीं होते।
भारत की विदेश नीति पर सवाल
हाल ही में विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि भारत ने अमेरिका के दबाव में रूस से तेल खरीदा। यह स्थिति भारत की स्वतंत्रता और विवेक पर सवाल उठाती है। क्या भारत की विदेश नीति अब केवल अवसरवाद पर आधारित है?