नेताजी सुभाष चंद्र बोस की गुमनामी: एक रहस्य की परतें

नेताजी का रहस्य
पत्रकार अनुज धर और पर्यावरणविद चंद्रचूड़ घोष ने अपने जीवन के बीस वर्ष इस सिद्धांत को स्थापित करने में लगाए कि ‘पर्दे वाले बाबा’, जिन्हें बाद में ‘गुमनामी बाबा’ के नाम से जाना गया, वास्तव में नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। पिछले सप्ताह, ये दोनों मेरे दिल्ली कार्यालय आए और इस विषय पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने अपनी लिखी हिंदी और अंग्रेजी में कई पुस्तकें भी साझा कीं।
हमारे बचपन से यह सिखाया गया कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइपे (ताइवान) में एक विमान दुर्घटना में हुई थी। लेकिन ‘मुखर्जी आयोग’ ने जब ताइपे जाकर जांच की, तो पता चला कि उस दिन और पूरे महीने में कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी। इसका मतलब है कि नेताजी की मौत की कहानी झूठी थी। तो फिर नेताजी गए कहाँ?
कई दशकों तक यह चर्चा होती रही कि नेताजी एक दिन प्रकट होंगे। बाबा जयगुरुदेव के अनुयायी देशभर में थे, और बड़े राजनीतिक परिवारों के बच्चे उनके साथ पढ़ते थे। उन्होंने मुझे 1967 में बताया था कि ‘नेताजी अभी जीवित हैं और गुमनाम रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहते हैं।’
पर्दे वाले बाबा, जो 1950 के दशक में नेपाल के रास्ते भारत आए, बस्ती, लखनऊ, नैमिषारण्य, फैजाबाद और अयोध्या के मंदिरों में छिपे रहे। उनके पास मिलने वाले लोगों को यह निर्देश था कि वे उनके सामने ‘सुभाष’ नाम का उल्लेख न करें। उनके करीबी 13 लोग थे, जिनमें से दो नेताजी की ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के इंटेलिजेंस विंग के सदस्य थे। ये लोग हर 23 जनवरी को नेताजी के जन्मदिन का जश्न मनाने आते थे।
अनुज धर और चंद्रचूड़ घोष ने अपने शोध में यह साबित किया कि नेताजी की विमान दुर्घटना की कहानी एक ढाल थी, जिसके पीछे वे रूस चले गए। वहां उन्हें सुरक्षित रखा गया। तीन साल बाद, वे संत के रूप में भारत लौटे और 16 सितंबर 1985 को अपनी मृत्यु तक गुमनाम रहे।
उनकी मृत्यु के बाद, उनके सामानों में नेताजी के परिवार के पत्राचार और कई महत्वपूर्ण दस्तावेज मिले। ललिता बोस, नेताजी की भतीजी, ने इन सामानों को सरकार के पास जमा करने की याचिका दायर की। अदालत ने भी इसे राष्ट्रीय महत्व का माना।
हालांकि, आज तक कोई भी सरकार गुमनामी बाबा की असली पहचान को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मोदी सरकार ने भी इस पर चुप्पी साध रखी है, जबकि उन्होंने इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित की है।