बिहार चुनाव 2025: जाति या विकास, किस पर होगा मतदान?

बिहार चुनाव की तैयारी
Bharat Ek Soch: बिहार एक बार फिर चुनावी मोड़ पर खड़ा है। मतदाता अपनी वोटिंग के माध्यम से यह तय करेंगे कि राज्य की बागडोर किसके हाथ में होगी। इस बार बिहार के लोग किन मुद्दों पर मतदान करेंगे? क्या विकास, रोजगार, शिक्षा, आर्थिक प्रगति, कानून-व्यवस्था, औद्योगिक विकास या फिर जाति आधारित समीकरणों पर? बिहार हमेशा से जातीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहां के नेता भले ही विकास और बदलाव की बातें करें, लेकिन असल में जातीय समीकरणों को साधने की कोशिशें जारी हैं। छोटे जातीय दलों की मांग बढ़ रही है, जैसे मुकेश सहनी की VIP, उपेंद्र कुशवाहा की RLM, जीतनराम माझी की HAM और चिराग पासवान की LJP-R। बड़े दलों के लिए इन छोटे दलों के साथ आना मजबूरी बन गई है, क्योंकि इससे उनकी ताकत में इजाफा होता है।
जातीय समीकरणों की राजनीति
सत्ता के लिए वोटों की सोशल इंजीनियरिंग
जाति केवल एक पहचान नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। चुनाव जीतने के लिए जातियों के जोड़-तोड़ का खेल जारी है, जिससे जाति की दीवारें और ऊंची होती जा रही हैं। बिहार में बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप जायसवाल कलवार जाति से हैं, जबकि उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी कुशवाहा समुदाय से आते हैं। जेडीयू के नेता नीतीश कुमार कुर्मी जाति से हैं। सभी राजनीतिक दल सत्ता के लिए वोटों की सोशल इंजीनियरिंग में लगे हुए हैं।
नीतीश कुमार का उदय
नीतीश की राजनीति का कैसे हुआ उदय?
बिहार में अब चर्चा का विषय है कि किस जाति का वोट किसके पक्ष में जाएगा। तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की जोड़ी के साथ कौन-कौन सी जातियों का समर्थन मिलेगा? लालू यादव ने मुस्लिम और यादव वोटों का समीकरण बनाया था, जिसे तेजस्वी यादव ने महिला और युवा वोटों के साथ जोड़ने की कोशिश की है। जातीय सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, यादव बिहार की सबसे बड़ी जाति है। ओबीसी की हिस्सेदारी 63.14% है। इस बार ओबीसी वोटबैंक को अपनी ओर खींचने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
अगड़ा-पिछड़ा की लड़ाई
अगड़ा-पिछड़ा की लड़ाई में इस वर्ग का हुआ नुकसान
बिहार की राजनीति में लालू यादव और नीतीश कुमार का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। चुनावों में लोग किसी खास उम्मीदवार को जिताने के बजाय दूसरे को रोकने के लिए वोट डालने लगे हैं। इस लड़ाई में पढ़े-लिखे वर्ग का तेजी से पलायन हो रहा है। बिहार की राजनीतिक स्थिति में जातियों का प्रभाव और भी गहरा होता जा रहा है।
बिहार की राजनीतिक यात्रा
बंगाल वाला बिहार कैसा था?
समाज और सत्ता का चक्र हमेशा घूमता रहता है। पहले अगड़ा बनाम पिछड़ा की लड़ाई थी, अब पिछड़ों में अगड़ा-पिछड़ा की चल रही है। बिहार की सत्ता में सवर्णों का वर्चस्व रहा है। 1912 में बिहार के अलग राज्य बनने के बाद जाति और राजनीतिक समन्वय की सफलता के बड़े उदाहरण सामने आए।
जातियों की हिस्सेदारी
अब तक बिहार की राजनीति में किस जाति की कितनी हिस्सेदारी
सत्ता में हिस्सेदारी जातियों की ताकत को बढ़ाती और घटाती है। आंकड़ों के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि कैसे जातियों की राजनीतिक स्थिति बदलती रही है। 1990 में जब लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए, तब यादव जाति के 63 उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे। लेकिन 2020 में यह संख्या घटकर 54 रह गई। बिहार का इतिहास बताता है कि जातियों से सत्ता को ताकत मिली और सत्ता से जातियों के भीतर खास लोगों को।