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बिहार चुनाव में अगड़ा-पिछड़ा समीकरण की राजनीति

बिहार विधानसभा चुनाव में अगड़ा और पिछड़ा वर्ग के बीच की राजनीति में सावधानी बरती जा रही है। राष्ट्रीय जनता दल के नेता अशोक महतो के बयान से लेकर तेजस्वी यादव की 'ए टू जेड' राजनीति तक, यह चुनाव जातीय समीकरणों से प्रभावित हो रहा है। जानें कैसे भाजपा और जदयू अपनी रणनीतियों के माध्यम से इस चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयास कर रहे हैं। क्या सवर्णों की प्राथमिकता बदल गई है? इस लेख में जानें बिहार की राजनीति के जटिल समीकरणों के बारे में।
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बिहार चुनाव में अगड़ा-पिछड़ा समीकरण की राजनीति

बिहार विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण

बिहार विधानसभा चुनाव में अगड़ा और पिछड़ा वर्ग के बीच की राजनीति को लेकर सावधानी बरती जा रही है। राष्ट्रीय जनता दल के नेता अशोक महतो का बयान, जिसमें उन्होंने कहा कि 'भूराबाल को पूरी तरह से साफ करना है', इसी दिशा में इशारा करता है। इससे पहले राजद की प्रवक्ता सारिका पासवान और सवर्ण नेता आशुतोष कुमार के बीच हुई बहस और कानूनी विवाद को भी इसी संदर्भ में देखना आवश्यक है। उस समय राजद के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट से सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देने वाली पोस्ट साझा की गई थी। हालांकि, राजद के नेता तुरंत ही स्थिति को संभालने में सफल रहे और अपने कदम पीछे खींच लिए। तेजस्वी यादव ने 'ए टू जेड' यानी सभी जातियों की राजनीति की बात की है और अपने पिता लालू प्रसाद द्वारा स्थापित 'माई' समीकरण के स्थान पर 'माईबाप' समीकरण बनाने की घोषणा की है। उन्होंने 'माई' में 'बाप' जोड़ते हुए कहा कि 'बी से बहुजन, ए से अगड़ा, ए से आधी आबादी और पी से पुअर यानी गरीब'। यह भी 'ए टू जेड' का एक नया रूप है।


राजद की रणनीति और भाजपा की प्रतिक्रिया

चूंकि तेजस्वी यादव 'ए टू जेड' की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं और लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू के कोर वोट बैंक माने जाने वाले भूमिहार और वैश्य समुदाय के उम्मीदवारों को राजद की टिकट पर उतारा गया था, इसलिए उनकी पार्टी में अगड़ा और पिछड़ा के बीच विभाजन करने का प्रयास कर रहे नेताओं को बहुत सावधानी से काम करना पड़ रहा है। वे खुलकर इस दिशा में नहीं बढ़ रहे हैं, लेकिन संदेश स्पष्ट है। जब भी राजद नेताओं ने 'भूराबाल साफ करो' का नारा दिया, तब उनके बड़े नेता चुप रहे। तेजस्वी यादव ने इस बार यह संदेश दिया है कि यदि एनडीए चुनाव जीतता है, तो नीतीश कुमार नहीं, बल्कि भाजपा के मंगल पांडेय मुख्यमंत्री बनेंगे।


सवर्णों की स्थिति और चुनावी समीकरण

बिहार के सवर्ण, जिन्हें 'भूराबाल' कहा जा रहा है, ने पहले ही समझ लिया था कि अब सत्ता उनके हाथ में नहीं रहेगी। जब कोई समाज इस बात को समझ लेता है, तो वह राजनीति में अधिक प्रभावी हो जाता है। बिहार के सवर्ण पिछले ढाई दशक से राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं। हालांकि, आनंद मोहन का यह कहना कि 'भूराबाल तय करेगा कि किसकी सरकार बनेगी' सही नहीं है। बिहार में सवर्ण हिंदुओं की आबादी केवल 9 से 10 प्रतिशत है। उनकी प्राथमिकता एनडीए है, लेकिन सभी जातियां अपने विधायकों की संख्या बढ़ाने को प्राथमिकता दे रही हैं। तेजस्वी यादव इस बात को समझते हैं, इसलिए पिछले लोकसभा चुनाव में 'इंडिया' ब्लॉक के तहत तीन भूमिहार उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और उन्हें वोट भी मिले।


पिछड़ी जातियों का प्रभाव

बिहार में किसकी सरकार बनेगी, यह गैर यादव पिछड़ी जातियों से तय होगा। बिहार में पिछड़ी जातियों की आबादी 27 प्रतिशत है, जिनमें 14 प्रतिशत यादव हैं। इसमें कोईरी यानी कुशवाहा सबसे आकांक्षी जाति है। पिछली बार लोकसभा चुनाव में जिन सीटों पर 'इंडिया' ब्लॉक ने कुशवाहा उम्मीदवार दिए थे, वहां जाति का वोट उन्हें मिला। भाजपा ने सम्राट चौधरी का चेहरा आगे रखा है, जिससे कुर्मी वोट में कोई गड़बड़ी नहीं होगी। गैर यादव के बाद भाजपा और जदयू का सबसे बड़ा वोट आधार अतिपिछड़ी जातियों का है। बिहार में 36 प्रतिशत अति पिछड़ी जातियां हैं, जिनमें से करीब 26 प्रतिशत हिंदू हैं। यह वोट एकमुश्त एनडीए को जाता है।


भाजपा और जदयू की रणनीति

बिहार की राजनीति में 'भूराबाल' यानी अगड़ी जातियां कुछ भी तय करने की स्थिति में नहीं हैं। उनके नेता मांगने वाले होते हैं, देने वाले नहीं। राजद में टिकट लालू और तेजस्वी यादव तय करेंगे। कांग्रेस में दलित नेता राजेश राम सबसे मजबूत स्थिति में हैं। एनडीए में भाजपा में सम्राट चौधरी, नित्यानंद राय और दिलीप जायसवाल टिकट तय करेंगे। जदयू में नीतीश कुमार और लोजपा में चिराग पासवान टिकट तय करेंगे। किसी भी पार्टी से एक भी सवर्ण नेता ऐसी स्थिति में नहीं है कि एक भी टिकट का फैसला करा सके। इसलिए बिहार का चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा नहीं होगा, बल्कि यह पिछड़ा बनाम पिछड़ा ही रहेगा।