बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर का प्रभाव: राजनीतिक समीकरणों में बदलाव

बिहार चुनाव में नया मोड़
बिहार का चुनाव एक बार फिर दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। पिछली बार चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा ने चुनाव को बहुकोणीय बना दिया था। इस बार प्रशांत किशोर की एंट्री ने चुनावी परिदृश्य को नया मोड़ दिया है, जिससे मुकाबला अब सीधा नहीं, बल्कि त्रिकोणीय होता नजर आ रहा है।
प्रशांत किशोर की नई पहचान
बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर एक नई सनसनी बनकर उभरे हैं। उनके आक्रामक जनसंपर्क अभियान ने न केवल राजनीतिक दलों को उलझन में डाल दिया है, बल्कि चुनावी विश्लेषकों को भी संशय में डाल दिया है। उनकी सभाओं में उमड़ती भीड़ ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि यह जनसैलाब किसके वोट बैंक में सेंध लगाएगा। उनके कार्यक्रमों में हर जाति और समुदाय के लोग शामिल हो रहे हैं, चाहे वह यादव बहुल क्षेत्र हो, ब्राह्मण हों या मुस्लिम आबादी वाले इलाके।
क्या पीके इस पैटर्न में सेंध लगा पाएंगे?
आंकड़ों के अनुसार, 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार में मुस्लिम वोटिंग प्रतिशत लगभग 75% था, जिसमें से करीब 80% वोट RJD और कांग्रेस गठबंधन को मिला था। 2020 में यह आंकड़ा थोड़ा घटा, लेकिन RJD को मुस्लिमों का भरोसा मिलता रहा। अब सवाल यह है कि क्या पीके इस पैटर्न में सेंध लगा पाएंगे या चुनावी माहौल फिर से जातीय ध्रुवीकरण में उलझ जाएगा? प्रशांत किशोर मुसलमानों की दुर्दशा का मुद्दा भी लगातार उठा रहे हैं।
अगड़ा-पिछड़ा-दलित समीकरण एनडीए का आधार
इस स्थिति में यह तय करना मुश्किल हो गया है कि पीके की मौजूदगी से सबसे ज्यादा नुकसान किसे होगा। हालांकि, एनडीए को विश्वास है कि पीके की भीड़ वोट में नहीं बदलेगी। बिहार की राजनीति अब तक दो मुख्य ध्रुवों पर केंद्रित रही है: मुस्लिम-यादव गठजोड़ जो लालू परिवार के साथ है, और अगड़ा-पिछड़ा-दलित समीकरण जो एनडीए का आधार है। लेकिन पीके इस ध्रुवीकरण को चुनौती देते नजर आ रहे हैं।
पीके के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो रहे हैं तीन तरह के वोटर
तीस साल बाद पहली बार ब्राह्मण-भूमिहार समाज में यह भावना बन रही है कि कोई उनके समाज से भी मुख्यमंत्री की रेस में है। यह वर्ग बीजेपी का कोर वोटर रहा है। यदि यहां सेंध लगी, तो इसका सीधा नुकसान बीजेपी और एनडीए को होगा। पीके के इर्द-गिर्द तीन तरह के वोटर इकट्ठा हो रहे हैं: पहला, वे जो अपनी जाति या समुदाय से मुख्यमंत्री बनता देखना चाहते हैं; दूसरा, मुस्लिम वोटर जिन्हें अब तक सीमित विकल्प ही मिलते थे; तीसरा, युवा वोटर जो पीके के भाषणों और बदलाव के वादों से प्रभावित हो रहे हैं। हालांकि, वक्फ विवाद और तेजस्वी यादव की आक्रामकता के चलते मुस्लिम वोट बैंक का टूटना फिलहाल टलता दिख रहा है।
बिहार की राजनीति में नया अध्याय
यदि मुस्लिम वोट जहां का तहां रहा और युवा वोटरों में सेंध लगी, तो सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी और नीतीश कुमार को हो सकता है। बीजेपी को पता है कि उनके पास राज्य में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो अपने नाम पर भीड़ खींच सके। इस बार की लड़ाई का दिलचस्प पहलू यही है कि कौन किसका वोट काटेगा और कौन इस भीड़ को वोट में बदल पाएगा? बिहार की राजनीति एक बार फिर करवट लेने जा रही है।