भारत की कूटनीति में टीआरएफ पर अमेरिका का निर्णय: एक नई दिशा

टीआरएफ और लश्कर-ए-तैयबा के खिलाफ भारत की कार्रवाई
भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत टीआरएफ और लश्कर-ए-तैयबा के कुछ ठिकानों को निशाना बनाया है। हालांकि, उनके समर्थन तंत्र का पूर्ण रूप से नष्ट होना अभी बाकी है, जिसके बिना हर उपलब्धि अधूरी मानी जाएगी।
अमेरिका का निर्णय और भारतीय कूटनीति
आतंकवादी संगठन ‘द रेजिस्टैंस फोर्स’ (टीआरएफ) को अमेरिका द्वारा ‘विदेशी आतंकवादी संगठनों’ की सूची में शामिल करना एक सकारात्मक कदम है। इसे भारतीय कूटनीति की सीमित सफलता के रूप में देखा जा सकता है। टीआरएफ लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा हुआ है और उसने पहलगाम में हुए हमलों की जिम्मेदारी ली थी। इसके बाद से भारत सरकार ने इस संगठन और उसके नेटवर्क पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने का प्रयास किया है। अब जाकर इस दिशा में कुछ सफलता मिली है, लेकिन यह अभी अधूरी है।
पाकिस्तान की भूमिका और अंतरराष्ट्रीय दबाव
टीआरएफ और लश्कर-ए-तैयबा अपनी गतिविधियों को पाकिस्तान से संचालित करते हैं। भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उनके कुछ ठिकानों को निशाना बनाया, लेकिन उनके समर्थन तंत्र को समाप्त करना तभी संभव है जब पाकिस्तान आतंकवाद का उपयोग भारत के खिलाफ करना बंद करे। इसलिए, अंतरराष्ट्रीय शक्तियों का ध्यान इस ओर खींचना आवश्यक है ताकि वे पाकिस्तान पर प्रभावी दबाव बना सकें। क्या अमेरिका इस भूमिका को निभाने के लिए तैयार है? अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की हालिया गतिविधियों से ऐसा प्रतीत नहीं होता।
भारतीय कूटनीति की परीक्षा
इस वर्ष क्वॉड शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए ट्रंप के भारत आने की चर्चा है। यदि ट्रंप प्रशासन की यह शैली जारी रहती है, तो टीआरएफ को आतंकवादी सूची में डालने का कदम केवल दिखावा बनकर रह जाएगा। यह भारतीय कूटनीति की भी परीक्षा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा है कि टीआरएफ के खिलाफ अमेरिका का हालिया कदम ‘आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमेरिका के सहयोग की मजबूत पुष्टि’ है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर आतंकवादी संगठनों और उनके प्रॉक्सीज को जवाबदेह ठहराने के लिए प्रयास जारी रखेगा। जब तक ऐसा नहीं होता, हर सफलता अधूरी मानी जाएगी। पहलगाम में जघन्य अपराध करने वाले आतंकवादियों और उनके संरक्षकों को दंड दिलवाना असली लक्ष्य है, जो अभी पूरा होना बाकी है।