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भारत की राजनीति में सुधार की आवश्यकता: सर्वोच्च अदालत की याचिका

भारत में राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों की बढ़ती संख्या पर सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर की गई है। इस याचिका में राजनीतिक दलों के कामकाज को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने की मांग की गई है। रिपोर्टों के अनुसार, कई दल काले धन को सफेद करने और आपराधिक तत्वों को पार्टी में शामिल करने में संलग्न हैं। आंकड़ों के अनुसार, मान्यता प्राप्त दलों में भी आपराधिक मामलों की संख्या चिंताजनक है। क्या अदालत इस स्थिति में सुधार कर सकती है? जानें इस मुद्दे पर विस्तृत जानकारी।
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भारत की राजनीति में सुधार की आवश्यकता: सर्वोच्च अदालत की याचिका

राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों की बढ़ती संख्या

भारत में राजनीतिक दल संविधान, लोकतंत्र, संसदीय प्रणाली, नैतिकता और परंपरा की बातें करते हैं, लेकिन यदि वे इनमें से किसी एक पर भी गंभीरता से अमल करते, तो आज देश की राजनीति इस स्थिति में नहीं होती। अब लोगों को सुधार के लिए सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। हाल ही में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें अदालत से राजनीतिक दलों में बढ़ते भ्रष्टाचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, अपराधीकरण और काले धन को सफेद करने के मामलों पर सख्त कार्रवाई की मांग की गई है। याचिका में मीडिया में आई कुछ रिपोर्टों का उल्लेख किया गया है, जिसमें एक राजनीतिक दल के बारे में कहा गया है कि वह 20 प्रतिशत कमीशन लेकर काले धन को सफेद करता है। इसके अलावा, एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया है कि एक पार्टी अपराधियों और तस्करों को पैसे लेकर पार्टी में पद देती है।


हालांकि, ये रिपोर्टें राजनीतिक दलों के असली चरित्र को उजागर करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए और आंकड़े देखने होंगे। उदाहरण के लिए, भारत में हजारों राजनीतिक दल चुनाव आयोग के पास रजिस्टर्ड हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश को राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता नहीं मिली है। फिर भी, वित्त वर्ष 2022-23 में उन्हें मिलने वाले चंदे में 223 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। कई दल ऐसे हैं, जो चुनाव भी नहीं लड़ते, लेकिन फिर भी चंदा हर साल दोगुना या तीन गुना हो रहा है। गुजरात की पांच गैर मान्यता प्राप्त पार्टियों को 2300 करोड़ रुपये से अधिक का चंदा मिला है।


मान्यता प्राप्त दलों की स्थिति भी अलग नहीं है। देश के 781 सांसदों और 4300 से अधिक विधायकों में से अधिकांश मान्यता प्राप्त दलों से हैं, जिनमें से 45 प्रतिशत विधायकों और 46 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। लगभग 29 प्रतिशत के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। केंद्र और राज्य सरकारों में 300 से अधिक मंत्री ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले हैं, जो कुल मंत्रियों का 47 प्रतिशत है। इनमें से 174 मंत्री ऐसे हैं, जिन पर हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आरोप हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने विधायकों और सांसदों द्वारा चुनाव आयोग में दिए गए हलफनामों के आधार पर कई आंकड़े जारी किए हैं।


यदि इन आंकड़ों पर ध्यान दें, तो भाजपा के 40 प्रतिशत और कांग्रेस के 74 प्रतिशत मंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं। आम आदमी पार्टी के 69 प्रतिशत और टीडीपी के 96 प्रतिशत मंत्रियों पर भी आपराधिक मामले हैं। जब इन दलों के शीर्ष नेताओं के भाषण सुने जाते हैं और इन आंकड़ों को सामने रखा जाता है, तो उनकी हिप्पोक्रेसी स्पष्ट होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब सत्ता में कदम रखा था, तो उन्होंने कहा था कि राजनीति में सफाई का कार्य ऊपर से शुरू होगा।


आज की स्थिति यह है कि पिछले 15 वर्षों में आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भाजपा के 336 मंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं, जिनमें से 88 के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले हैं। राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि वे संत हैं, लेकिन उनकी पार्टी में हत्या, अपहरण, डकैती और महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वाले लोग उच्च पदों पर हैं। इस पर सवाल उठता है कि क्या पार्टियों के अंदर के इस कीचड़ की सफाई किसी कानून से हो सकती है?


सुप्रीम कोर्ट के नोटिस पर सरकार और पार्टियों की ओर से जवाब दिया जाएगा। कई कानून बनाए गए हैं, जिनका हवाला दिया जाएगा। यह भी बताया जाएगा कि केंद्र सरकार ने तीन विधेयक पेश किए हैं, जिनमें यह प्रावधान है कि गिरफ्तारी या 30 दिन की हिरासत के बाद मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को पद से हटा दिया जाएगा। सरकार यह भी बता सकती है कि नरेंद्र मोदी ने कहा है कि प्रधानमंत्री को भी इस दायरे में रखा जाए। यह सुनकर ऐसा लगेगा कि प्रधानमंत्री कितने महान हैं, जिन्होंने खुद को भी जवाबदेह बनाया।


लेकिन सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री की पार्टी हर प्रकार के अपराध के आरोपियों को टिकट देती है, चुनाव लड़ाती है, और जीतने पर उन्हें मंत्री और मुख्यमंत्री बनाती है। प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता, जिन पर गंभीर आर्थिक अपराध के आरोप हैं, समय आने पर उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कराते हैं या उनके साथ तालमेल करके उन्हें मंत्री और उपमुख्यमंत्री बनाते हैं। यह हिप्पोक्रेसी सभी पार्टियों में समान रूप से देखने को मिलती है।


इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी अदालती प्रक्रिया या आदेश से इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इसे राजनीतिक दलों को स्वयं ठीक करना होगा, लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उनकी सारी राजनीति चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए होती है। राजनीति न तो सेवा का माध्यम है और न ही नागरिकों को सशक्त बनाने का प्रयास। यह केवल सत्ता हासिल करने का एक साधन है, और इसके लिए पार्टियां कुछ भी करेंगी। नीतीश कुमार, जो आजाद भारत के सबसे समझदार और शिक्षित नेताओं में से एक माने जाते हैं, ने राजनीति की इस प्रवृत्ति को एक वाक्य में परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था, 'बाघ के आगे बकरी नहीं लड़ा सकते हैं।' इसका मतलब स्पष्ट है। यदि सामने वाली पार्टी ने दबंग, बाहुबली, गंभीर अपराध का आरोपी, अरबपति उम्मीदवार उतारा है, तो हमें भी वैसा ही उम्मीदवार खोजना होगा।


वास्तव में, सभी पार्टियों का उम्मीदवार खोजने का एक ही पैमाना है। वह जातीय समीकरण पर फिट बैठता है या नहीं, उसके पास चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं या नहीं, वह बाहुबल से संपन्न है या नहीं, और वह जीतने में सक्षम है या नहीं। जब तक इस आधार पर उम्मीदवार चुने जाएंगे, तब तक राजनीति की सफाई नहीं हो सकती। इन पैमानों के कारण ही नेता राजनीति में आने से पहले धन कमाने का प्रयास शुरू करते हैं। इस प्रयास में वे अपराध में शामिल होते हैं, बाहुबल और धनबल के दम पर अपने सामाजिक समीकरण को ठीक करते हैं, और फिर पार्टियों की टिकट लेकर विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं। इसके बाद वे अपने पद का दुरुपयोग करके अपने धनबल और बाहुबल को और बढ़ाते हैं। यह एक दुष्चक्र है, जिसे भारतीय राजनीति ने रचा है। इसे किसी अदालती आदेश से ठीक नहीं किया जा सकता!