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भारत के बुद्धिजीवियों की स्थिति: सत्ता और स्वार्थ का खेल

इस लेख में भारत के बुद्धिजीवियों की स्थिति और सत्ता के प्रति उनकी दृष्टि का विश्लेषण किया गया है। क्या वे सच में स्वतंत्र विचार रखते हैं या केवल स्वार्थ के लिए सत्ता के साथ जुड़ते हैं? शशि थरूर जैसे बुद्धिजीवियों की भूमिका और उनके राजनीतिक स्वार्थ पर चर्चा की गई है। क्या वे नरेंद्र मोदी के दरबार में अपनी पहचान बना सकते हैं? जानें इस लेख में।
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भारत के बुद्धिजीवियों की स्थिति: सत्ता और स्वार्थ का खेल

भारत के बुद्धिजीवियों का इतिहास

भारत के हजार साल के इतिहास को याद करें! दिल्ली की सत्ता को चुनौती देने वाले कितने बुद्धिमान लोग हुए हैं? विशेषकर दिल्ली के अमीर और विद्वान वर्ग में कितने ऐसे थे जो बादशाहों से भिड़ने का साहस रखते थे? इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय को याद करें। क्या उस समय निर्भीकता की कोई मिसाल थी? तब भी लुटियन दिल्ली के 'काले कौवों' की सच्चाई यह थी कि उन्हें झुकने के लिए कहा गया और वे रेंगने लगे।


सत्ता का बौद्धिक विलास

शशि थरूर जैसे बुद्धिजीवियों का यही सार है। सत्ता की आरती उतारना, उसके साथ तस्वीरें खिंचवाना और उससे कुछ लाभ प्राप्त करना, यही है बुद्धिजीवियों का बौद्धिक विलास। यह सच है कि जो सत्ता में हैं, उनमें भी ऐसी ललक होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं का मुख्य उद्देश्य भी यही होता है कि वे डोनाल्ड ट्रंप के साथ तस्वीरें खिंचवाकर अपनी छवि को भारत में चमकाएं।


राजनीतिक स्वार्थ और परिणाम

गुलाम नबी आजाद को क्या मिला? जिन्होंने चालीस साल तक गांधी-नेहरू परिवार से मलाई खाई, वे नरेंद्र मोदी की कृपा पाने के लिए क्यों रो रहे थे? कर्नाटक में कांग्रेस के बुजुर्ग नेता एसएम कृष्णा ने मोदी के पास जाकर क्या पाया? पंजाब के कैप्टेन अमरिंदर सिंह और हरियाणा के बीरेंद्र सिंह जैसे नेताओं ने कांग्रेस से मलाई खाई और अंत में भाजपा में जाकर क्या हासिल किया?


लुटियन दिल्ली का बुद्धिजीवी वर्ग

लुटियन दिल्ली में बुद्धिजीवियों और थिंक टैंकों की स्थिति पर गौर करें। 'इंडिया टुडे' के मालिक अरूण पुरी ने प्रधानमंत्री से दुकान चलाने की विनती की थी, और नरेंद्र मोदी ने कहा कि चलो, आज तुम्हारी दुकान चलवा देते हैं। क्या इनकी दुकानें पिछले ग्यारह वर्षों में बरबाद हुई हैं या सफल रही हैं? भारत में अडानी और अंबानी जैसे बड़े घरानों के अलावा और कौन सफल हुआ है?


बुद्धिजीवियों की वास्तविकता

बुद्धिजीवियों की स्थिति महत्वपूर्ण है। शशि थरूर और उनके साथी जो फिलहाल ऑपरेशन सिंदूर में व्यस्त हैं, उन्हें क्या मिलेगा? मेरा मानना है कि वे नरेंद्र मोदी के दरबार में अकबर के नवरत्नों जैसी स्थिति नहीं पा सकते। क्योंकि नरेंद्र मोदी के शासन में बीरबल की भी कोई गुंजाइश नहीं है। जहां शासन की जगह भाषण, विचार की जगह लाठी, और जुमलों का बोलबाला है, वहां कांव-कांव के तराने गाने वालों को क्या मिलेगा? वही जो कौवों को मिलता है!