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भारत के विभाजन के पीछे की सच्चाई: क्या सभी मुसलमान थे सहमत?

15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के साथ ही देश का विभाजन हुआ, जो कई राजनीतिक और सामाजिक कारणों से प्रभावित था। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' का प्रस्ताव रखा, लेकिन क्या सभी मुसलमान इस विभाजन के पक्ष में थे? इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे मुस्लिम लीग ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मान लिया और उस समय के कई मुस्लिम नेताओं ने जिन्ना के विचारों का विरोध किया। क्या यह सच है कि आम मुसलमानों ने विभाजन का समर्थन किया? जानें इस ऐतिहासिक घटना के पीछे की सच्चाई।
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भारत का विभाजन: एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण

15 अगस्त 1947 को भारत ने अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त की, लेकिन यह स्वतंत्रता दो हिस्सों में बंटने के साथ आई। इस विभाजन के पीछे कई राजनीतिक और सामाजिक कारण थे। धर्म के आधार पर विभाजन का निर्णय लिया गया, जिसमें मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' का प्रस्ताव रखा। उनका कहना था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग समुदाय हैं और वे एक साथ नहीं रह सकते। हालांकि, उस समय कई मुस्लिम नेता जिन्ना के इस विचार से असहमत थे।


यह सामान्य धारणा है कि जिन्ना और उनके अनुयायियों ने भारत का विभाजन किया। लेकिन क्या यह सच है कि हर मुसलमान इस बंटवारे के पक्ष में था? क्या मुस्लिम लीग वास्तव में सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती थी?


मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में हुई थी, जिसका उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक और शैक्षिक हितों की रक्षा करना था। प्रारंभ में, इसका लक्ष्य स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना नहीं था। बाद में, लीग ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मान लिया और 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' के माध्यम से अलग देश की मांग की।


हालांकि, कांग्रेस के प्रमुख मुस्लिम नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे कई लोग जिन्ना के विचारों के खिलाफ थे। मौलाना आज़ाद ने 1947 में दिल्ली की जामा मस्जिद में एक भावुक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उन मुसलमानों को चेतावनी दी जो पाकिस्तान जा रहे थे। उन्होंने सवाल उठाया कि जिस स्थान पर आप वर्षों से रह रहे हैं, वहां अचानक खतरा क्यों महसूस हो रहा है? उनके इस आह्वान ने कई लोगों को पाकिस्तान जाने का इरादा बदलने के लिए प्रेरित किया।


1946 के चुनाव में मुस्लिम लीग को 75% मुस्लिम वोट मिले थे, लेकिन यह पूरी सच्चाई नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर के अनुसार, उस समय केवल 9% लोगों को वोट देने का अधिकार था। 'पृथक निर्वाचक मंडल' की व्यवस्था में मुस्लिम उम्मीदवार को केवल मुस्लिम मतदाता ही वोट देते थे। इसके बावजूद, मुस्लिम लीग पंजाब में सरकार बनाने में असफल रही।


दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहासकार और सेवानिवृत्त प्रोफेसर दशमशुल इस्लाम का मानना है कि जिन्ना ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए धर्म और उर्दू भाषा के नाम पर देश का विभाजन कराया। उन्होंने दक्षिण भारत के मुसलमानों का उल्लेख तक नहीं किया, क्योंकि उनका उद्देश्य आम मुसलमानों का कल्याण नहीं था।


सिंध के तत्कालीन प्रधानमंत्री अल्लाह बख़्श ने भी जिन्ना के पाकिस्तान प्रस्ताव का विरोध किया। उनका तर्क था कि बंटवारा मुसलमानों के हित में नहीं है, बल्कि हिंदू और मुसलमानों का एक साथ मिलकर संघर्ष करना ही सही रास्ता है।


वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई का मानना है कि गरीब और आम मुसलमान भारत के विभाजन के पक्ष में नहीं थे। यह केवल जिन्ना जैसे अमीर और राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगों की साजिश का परिणाम था। वाइसराय की रिपोर्टों में भी आम मुसलमानों की व्यक्तिगत राय का कोई उल्लेख नहीं है, जिससे यह साबित नहीं होता कि सभी मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ थे।