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भारत में आर्थिक असमानता: क्या क्रांति संभव है?

भारत में आर्थिक असमानता एक गंभीर मुद्दा है, जहां 140 करोड़ लोगों की संपत्ति का 60 प्रतिशत केवल एक प्रतिशत परिवारों के पास है। क्या इस असमानता के खिलाफ कोई सामाजिक क्रांति संभव है? मनु जोसेफ़ की पुस्तक 'क्यों गरीब हमें नहीं मारते' इस विषय पर विचार करती है। क्या मध्य वर्ग का युवा विद्रोह करेगा? जानिए इस लेख में इस मुद्दे की गहराई और संभावनाओं के बारे में।
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भारत में आर्थिक असमानता: क्या क्रांति संभव है?

हिंदू धर्म और आर्थिक असमानता

भारत में लक्ष्मीपुत्रों के खिलाफ क्रांति की संभावना नहीं! भारत अब असमानता का एक वैश्विक उपमहाद्वीप बन चुका है। यहाँ की जनसंख्या 140 करोड़ है, लेकिन इनकी कुल संपत्ति का 60 प्रतिशत केवल एक प्रतिशत परिवारों के पास है। हुरुन इंडिया की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1,687 व्यक्तियों की संपत्ति हजारों करोड़ रुपए से अधिक है, और 358 अरबपतियों की औसत संपत्ति 8,500 करोड़ रुपए से ज्यादा है। भारत में गरीब और अमीर के बीच की यह असमानता कहीं और नहीं देखी जाती। ये आंकड़े किसी भी देश को चिंतित कर सकते हैं, लेकिन भारत में लोग इस असमानता को अनुभव करते हुए भी इसे लेकर चिंतित नहीं हैं। हिंदू समाज भाग्य का हवाला देकर इस स्थिति को स्वीकार कर लेता है। यही कारण है कि भारत के अरबपति हमेशा निश्चिंत रहते हैं। उन्हें असमानता से कोई डर नहीं है, क्योंकि यह उनके लिए नैतिक संकट नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वभाव है।


इसलिए मनु जोसेफ़ की पुस्तक “क्यों गरीब हमें नहीं मारते” (Why the Poor Don’t Kill Us) का विषय विचारणीय है। हाल ही में लंदन की एक पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ में इस पर समीक्षा पढ़ने को मिली। यह दर्शाता है कि दुनिया भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक मनोभावों से कितनी अनजान है।


पुस्तक में अमीरों की यह सोच उजागर की गई है कि भारत में नौकर, ड्राइवर और कामगार पहले जैसे आज्ञाकारी नहीं रहे। यह डर केवल एक शिकायत है, जो अमीरों के साथ-साथ मध्य वर्ग में भी देखने को मिलती है। अब कितने लोग ईमानदारी से काम करना चाहते हैं? गरीबों की उम्मीदें आसमान छूती हैं, लेकिन वे मेहनत से दूर भागते हैं। उनकी सोच और उद्देश्य सरकारी सहायता पर निर्भर होते हैं। लोग भले ही छोटी-छोटी नौकरियों में लगे रहें, लेकिन जो काम मिलता है, उसे कामचोरी से निपटाते हैं। यह स्वतंत्र भारत की सरकार की नीतियों का परिणाम है।


‘द इकोनॉमिस्ट’ के अनुसार, यह पुस्तक अमीरों की उस मानसिकता को उजागर करती है, जो मानती है कि समाज में शांति इसलिए है क्योंकि गरीबों ने अपनी स्थिति स्वीकार कर ली है। असमानता अब नैतिक नहीं, बल्कि स्वाभाविक लगने लगी है। अमीरों को केवल इस बात का डर है कि जिन लोगों ने उन पर भरोसा किया, वे अब भरोसा खो रहे हैं।


मनु जोसेफ़ का तर्क है कि भारत में गरीबों का गुस्सा कभी सामाजिक हिंसा में नहीं बदलता, क्योंकि समाज ने उन्हें नियंत्रण में रखने के कई उपाय कर रखे हैं। जैसे पुलिस की सख्ती, धार्मिक सहिष्णुता, और यह भ्रम कि शिक्षा से सभी अमीर बन सकते हैं। यह तर्क यथार्थ के करीब है, लेकिन अधूरा है। इतिहास बताता है कि जब उम्मीद और वास्तविकता के बीच की खाई बहुत चौड़ी हो जाती है, तो समाज की नींव हिल जाती है।


इसलिए, भारत का असली खतरा गरीबों से नहीं, बल्कि निराश मध्य वर्ग से है। यह वर्ग शिक्षित है, सपने देखता है, लेकिन अवसरों की कमी है। यह वर्ग नक्सल नहीं बनेगा, लेकिन लोकतंत्र पर से भरोसा खो देगा। जब भरोसा टूटता है, तो समाज की नैतिक एकता बिखर जाती है। मनु जोसेफ़ ने बीमारी को पहचाना, लेकिन असमानता और अमीरों की आत्मसंतुष्टि पर भविष्य का खतरा गलत जगह देखा। अगली बेचैनी गरीबों से नहीं, बल्कि मध्य वर्ग से उठेगी।


तो सवाल यह है कि क्या मध्य वर्ग का युवा विद्रोह करेगा? क्या भारत में आर्थिक असमानता पर कोई सामाजिक क्रांति संभव है? मेरा उत्तर है, कतई नहीं। भारत क्रांतिप्रूफ देश है।


इसका कारण सांस्कृतिक और धार्मिक है। भारत में धन को लक्ष्मी माना जाता है। जो लक्ष्मी पाता है, वह लक्ष्मीपुत्र होता है, और यह सब पूर्वजन्म की पुण्यताओं का परिणाम होता है। इसलिए अमीरों को पूजनीय माना जाता है। अडानी, अंबानी या अन्य अरबपति भले ही क्रोनी पूंजीवाद के तहत बने हों, लेकिन यह सब लक्ष्मीजी की कृपा से है। गरीबों का भाग्य संघर्ष और गरीबी का होता है, जबकि अमीरों का भाग्य धन का।


यह मानसिकता समाज के हर स्तर पर व्याप्त है। यह ब्राह्मण शिरोमणि मनु महाराज की कृपा से है। इतिहास में यह सत्य है कि ‘मनुस्मृति’ ने वैश्य जाति को धन का खजाना बनाने का कार्य सौंपा। इस प्रकार, मनु को सर्वाधिक वैश्य जाति का पूजना चाहिए।


‘मनुस्मृति’ के रचियता ने अपने हाथ में कलम और दीक्षा रखी, जबकि ठाकुर को तलवार भांजने का राजधर्म दिया। ये दोनों वर्ण जैन, बौद्ध, इस्लाम के प्रभाव में कमजोर हो गए। ब्राह्मण कर्मकांडी हो गए और चिंतन-मनन छोड़ दिया। वैश्य जाति ने व्यापार और कर-संग्रह का कार्य किया। स्वतंत्र भारत का लिखा हुआ इतिहास चाहे जो कहे, लेकिन ‘मनुस्मृति’ का सत्य यह है कि नस्ल और धर्म के लिए इसने शुद्र जाति को अधिक महत्व दिया।


बहरहाल, यह स्थिति सनातनी हिंदू राजाओं के समय से चली आ रही है। जैन और बौद्ध धर्म में भी वैश्य ही मालिक थे। तुर्क, अफ़ग़ान और मुगल काल में भी वैश्य वर्ग साम्राज्य की राजस्व मशीन बने रहे। ब्रिटिश शासन में भी बनिया अंग्रेजों के औपनिवेशिक ठेकेदार बन गए।


1947 में भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन नेहरू के समाजवाद के बावजूद बिड़ला का प्रभाव बना रहा। इंदिरा गांधी ने क्रोनी पूंजीवाद के नए आयाम बनाए। आज, मोदी युग में भी व्यापारी राज्य की सेवा नहीं करता, बल्कि उसे ब्रांड करता है। यह स्थिति दर्शाती है कि भारत में इतनी असमानता के बावजूद क्रांति संभव नहीं है।