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भारत में जनवाद: क्या यह लहर कभी थमेगी?

भारत में जनवाद की लहर ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है। हर चुनाव इस लहर को और प्रबल बनाता है, लेकिन क्या यह लहर कभी थमेगी? विपक्ष की चुनौतियाँ और बीजेपी की रणनीतियाँ इस स्थिति को और जटिल बनाती हैं। क्या बेहतर नैरेटिव मौजूदा जनवाद को हरा सकता है? जानिए इस लेख में।
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भारत में जनवाद: क्या यह लहर कभी थमेगी?

भारत में जनवाद की स्थिति

भारत वर्तमान में एक नए प्रकार के जनवाद की लहर पर सवार है। हर चुनाव इस लहर को और अधिक प्रबल बनाता है। यह लहर इतनी मजबूत हो गई है कि न तो क्षितिज दिखाई दे रहा है और न ही नीचे की धारा। सवाल यह है कि क्या यह लहर कभी टूटेगी? क्या एक ऐसा देश, जिसने लोकप्रिय राष्ट्रवाद को इतनी मजबूती से थाम रखा है, कभी इसे छोड़ पाएगा? क्या वह लोकतांत्रिक गरिमा को फिर से समझ पाएगा, या जो चमकता क्षितिज है, वह केवल अनिश्चितता का धुंधलका है?


विपक्ष की चुनौतियाँ

भविष्यवाणी करना आसान होता, यदि विपक्ष ने अपनी ताकत दिखाई होती। अगर उसने नारेबाजी के बजाय धैर्य दिखाया होता और केवल दृश्यता के बजाय एक ठोस ढांचा खड़ा किया होता। लेकिन आज का विपक्ष भी इसी लहर पर तैर रहा है—विरोध के शब्दों का प्रयोग करता है, लेकिन जनवाद के भावों की छाया में। वह लगातार पूछता है कि जनवाद का सामना कैसे करें, जबकि उसे यह भी नहीं पता कि अपने पैर जमीन पर कैसे टिकाए रखें। विपक्ष की सबसे बड़ी गलती यह है कि वह मानता है कि जनवाद को उसी की भाषा में हराया जा सकता है।


बीजेपी की रणनीति

समस्या केवल बीजेपी की कहानी के कंटेंट की नहीं है, बल्कि उसके फॉर्म की है—भावनाओं का केंद्रीकरण, डर का विस्तार, और नागरिकों को दर्शक मानने की प्रवृत्ति। विपक्ष, इसके विपरीत, जनता को ऑक्सीजन देने और शांति की गरिमा जगाने के बजाय अपनी 'संदेहवादी राजनीति' को बेचने की कोशिश कर रहा है।


परानॉइड स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स

रिचर्ड होफस्टैटर का पुराना जुमला—'the paranoid style of politics'—आज के वैश्विक जनवाद का मूल तत्व है। यह अदृश्य दुश्मनों और बढ़ते खतरों पर आधारित है। बीजेपी ने इस शैली को लगभग संस्थागत बना दिया है, जहां हर आलोचना राष्ट्र-विरोधी मानी जाती है।


विपक्ष की रणनीति

विपक्ष के लिए प्रलोभन स्पष्ट है: क्यों न इसी खेल को खेला जाए? लेकिन समस्या यह है कि बीजेपी मांसपेशियों के साथ प्रदर्शन करती है, जबकि विपक्ष बिना किसी ठोस कथा के प्रदर्शन करता है।


भविष्य की राजनीति

क्या 'बेहतर नैरेटिव' मौजूदा जनवाद को हरा सकता है? हाँ, इतिहास बताता है कि जनवाद को हराया जा सकता है। 20वीं सदी में वाम जनवाद ने कई देशों में सत्ता की भाषा तय की थी। लेकिन अंततः विश्वसनीयता के क्षरण ने उन्हें हराया। यही सबक आज के भारत के लिए भी है।