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भारत में राजनीतिक चंदे की असमानता: इलेक्ट्रॉल ट्रस्ट्स की रिपोर्ट

हाल ही में निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत इलेक्ट्रॉल ट्रस्ट्स की रिपोर्ट ने भारत में राजनीतिक चंदे की असमानता को उजागर किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा को चंदे का बड़ा हिस्सा मिला है, जबकि कांग्रेस को बहुत कम चंदा प्राप्त हुआ है। यह स्थिति दर्शाती है कि पूंजीपति वर्ग ने भाजपा के पक्ष में अपना समर्थन बढ़ा दिया है। इस लेख में हम इस असमानता के कारणों और इसके लोकतंत्र पर प्रभाव पर चर्चा करेंगे।
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भारत में राजनीतिक चंदे की असमानता: इलेक्ट्रॉल ट्रस्ट्स की रिपोर्ट

राजनीतिक चंदे की असमानता

इलेक्ट्रॉल ट्रस्ट्स में मुख्य रूप से पूंजीपति ही योगदान देते हैं। इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के माध्यम से वे चंदा प्रदान कर रहे थे। हालांकि, ऐसा प्रतीत नहीं होता कि इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के समाप्त होने से राजनीतिक चंदे की प्रकृति में कोई बदलाव आया है।


निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत की गई विभिन्न इलेक्ट्रॉल ट्रस्ट्स की रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि देश में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का स्तर कितना असमान हो गया है। यह भी दर्शाता है कि पूंजीपति वर्ग ने भाजपा के पक्ष में किस हद तक अपना समर्थन दिया है। नौ ट्रस्ट्स की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कुल 3,811 करोड़ रुपये का चंदा दिया, जिसमें से 3,112 करोड़ रुपये भाजपा के खाते में गए। वहीं, कांग्रेस को केवल 298.77 करोड़ रुपये का चंदा प्राप्त हुआ। कुल मिलाकर, भाजपा को 6,088 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 522 करोड़ रुपये मिले।


इसके अलावा, 100 करोड़ रुपये से अधिक चंदा प्राप्त करने वाली पार्टियों में केवल डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस शामिल हैं। इलेक्ट्रॉल ट्रस्ट्स में मुख्य रूप से पूंजीपति ही योगदान करते हैं। इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के माध्यम से वे चंदा दे रहे थे। लेकिन यह नहीं लगता कि इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के रद्द होने से राजनीतिक चंदे के स्वरूप पर कोई प्रभाव पड़ा है। अंतर केवल इतना है कि पहले यह सब परदे के पीछे होता था, अब यह सार्वजनिक हो गया है। यह वैध तरीके से दिया गया चंदा है। राजनीतिक दलों को काफी बड़ा योगदान 'काले धन' के माध्यम से भी मिलता है, जो सीधे लेन-देन का मामला होता है।


हालांकि, वैध चंदे के साथ दाता की प्राथमिकताएं भी जुड़ी होती हैं। इसका मतलब है कि चंदा नीतियों को प्रभावित करने का एक साधन बन जाता है। सिद्धांत रूप में यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सत्ताधारी दल को स्वाभाविक रूप से अधिक चंदा मिलने का अधिकार होता है। इसे मान लेना यह होगा कि जो दल सत्ता में आ गया, संसाधनों के मामले में प्रतिस्पर्धा का स्तर हमेशा उसके पक्ष में रहेगा। लोकतंत्र में यह अपेक्षित है कि सभी प्रतिस्पर्धी दलों को समान अवसर मिले। लेकिन वर्तमान में भारत में पूंजीपति समूह इस अपेक्षा के विपरीत कार्य कर रहा है। चूंकि मीडिया भी उनके नियंत्रण में है, यह स्थिति और भी गंभीर हो जाती है।