भारत में राजनीतिक सहमति की अस्थिरता: एक विश्लेषण

राजनीतिक सहमति का क्षणिक अस्तित्व
भारत में राजनीतिक सहमति का निर्माण कभी-कभी होता है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं टिकता। विभिन्न घटनाओं और परिस्थितियों के कारण, पक्ष और विपक्ष एक साथ आते हैं, लेकिन यह एकता जल्दी ही समाप्त हो जाती है। चाहे घटना कितनी भी गंभीर हो, राजनीतिक सहमति अक्सर क्षणिक होती है। पार्टियां अपनी राजनीतिक विचारधारा के अनुसार इतनी विभाजित हैं कि वे देश या समाज के हित से पहले अपने पार्टी हित को प्राथमिकता देती हैं। इस प्रकार, उनकी राजनीति स्वार्थ पर आधारित होती है, जिससे सहमति का टिकना मुश्किल हो जाता है।
पहलगाम आतंकी हमला: सहमति का क्षणिक उदाहरण
हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने देश को झकझोर दिया। 22 अप्रैल को आतंकवादियों ने 26 पर्यटकों की हत्या की, जिसके बाद सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में इसकी निंदा की। विपक्ष ने सरकार को समर्थन देने का आश्वासन दिया, लेकिन यह सहमति एक महीने से भी कम समय में समाप्त हो गई।
राजनीति का पुराना ढर्रा
सरकार ने पाकिस्तान में आतंकवादी ठिकानों पर कार्रवाई की, लेकिन इसके तुरंत बाद भाजपा ने कांग्रेस पर हमला करना शुरू कर दिया। इस प्रकार, राजनीतिक सहमति का अस्तित्व समाप्त हो गया। प्राकृतिक आपदाओं के समय भी पार्टियां एकजुटता दिखाती हैं, लेकिन जल्द ही आलोचना शुरू हो जाती है।
जातीय जनगणना पर असहमति
हाल ही में जातीय जनगणना की मांग को लेकर विपक्षी दलों में सहमति की उम्मीद थी, लेकिन यह भी नहीं दिख रही है। सरकार जातीय जनगणना कराने की योजना बना रही है, फिर भी विपक्ष में टकराव बना हुआ है।
राजनीतिक सहमति की स्थिरता का अभाव
चाहे पहलगाम की घटना हो या जातीय जनगणना का मुद्दा, राजनीतिक सहमति का टिकाऊ होना मुश्किल है। पार्टियां चुनावी राजनीति में इतनी व्यस्त हैं कि वे देशहित के मुद्दों पर एकजुटता नहीं दिखा पातीं।