भारत में लोकतंत्र का नया चेहरा: इमरजेंसी के सबक

इमरजेंसी के बाद का राजनीतिक परिदृश्य
भारत के नेताओं ने इमरजेंसी के बाद चुनाव परिणामों से यह सीख लिया है कि सत्ता को अपने हाथ में रखने के लिए इमरजेंसी की आवश्यकता नहीं है। पिछले 50 वर्षों में, सत्ता के नियंत्रण के लिए कई नए तरीके विकसित किए गए हैं। इमरजेंसी के दौरान जिन कार्यों को गलत माना गया, वे अब लोकतांत्रिक तरीके से किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) का प्रभाव बढ़ गया है, जहां से सभी निर्णय लिए जाएंगे। सभी मंत्री पीएमओ द्वारा निर्धारित एजेंडे का पालन करेंगे। कैबिनेट की बैठकों में कोई बहस नहीं होगी; जो एजेंडा रखा जाएगा, सभी को उस पर सहमति देनी होगी।
विपक्ष पर नियंत्रण के नए तरीके
कोई सांसद किसी भी प्रस्ताव पर सवाल नहीं उठा सकता। इमरजेंसी के दौरान विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया था, जबकि अब उन पर आर्थिक अपराधों के आरोप लगाए जा रहे हैं। ईडी के पास ऐसे अधिकार हैं कि यदि किसी पर धन शोधन का आरोप लगाया गया, तो उसे यह साबित करना होगा कि उसने कोई गलत काम नहीं किया।
मीडिया पर नियंत्रण
मीडिया को नियंत्रित करने के लिए अब प्रिंटिंग प्रेस को जब्त करने की आवश्यकता नहीं है। नए उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है, जिसमें ईडी भी शामिल है। हाल ही में एक प्रमुख चैनल के मालिकों के खिलाफ आर्थिक अपराध के आरोप लगे, और उनके चैनल पर छापा मारा गया। इसके बाद, एक बड़े व्यवसायी ने उनका चैनल खरीद लिया, और अब वह चैनल सरकार की प्रशंसा कर रहा है।
राज्य सरकारों पर दबाव
राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकारों को नियंत्रित करने के लिए नए उपायों का सहारा लिया जा रहा है। पहले अनुच्छेद 356 का उपयोग होता था, लेकिन अब राज्यपालों को ऐसे भेजा जा रहा है जो समानांतर सरकार चलाने लगते हैं। ये राज्यपाल कानून व्यवस्था और गरीबों की स्थिति पर बारीकी से नजर रखते हैं।
न्यायपालिका का राजनीतिकरण
इंदिरा गांधी के समय में न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप होता था, लेकिन अब यह सब कुछ लोकतांत्रिक तरीके से किया जा रहा है। जजों को राज्यसभा में मनोनीत किया जा रहा है, और वे खुलेआम सांप्रदायिक बयान देते हैं। यह सब कुछ अमृतकाल के अमृत के रूप में देखा जा रहा है।