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भारत में सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच का अंतर: एक गंभीर चिंता

भारत में सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच का अंतर धीरे-धीरे मिटता जा रहा है, जिससे लोकतंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। आजादी के बाद से यह अंतर कम होता गया है, और अब यह लगभग समाप्त हो चुका है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुनावी सभाओं में अपने दल के लिए वोट मांगते हैं, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या वे वास्तव में देश के नेता हैं। इस लेख में हम इस स्थिति के कारणों और इसके लोकतंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों पर चर्चा करेंगे।
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भारत में सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच का अंतर: एक गंभीर चिंता

सरकार और सत्तारूढ़ दल का बारीक अंतर

भारत में शासन की व्यवस्था में सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर होता है, जिसे बनाए रखना दोनों के प्रमुखों की जिम्मेदारी होती है। इसके साथ ही, संवैधानिक संस्थाओं, न्यायपालिका और मीडिया की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वे इस अंतर को बनाए रखें। लेकिन, स्वतंत्रता के बाद से यह अंतर धीरे-धीरे मिटता गया है और अब यह लगभग समाप्त हो चुका है। चाहे केंद्र हो या राज्य, सरकारें और सत्तारूढ़ दल एक ही हो गए हैं।


आजादी के बाद, जब प्रधानमंत्री किसी चुनावी सभा को संबोधित करते हैं, तो मीडिया में यह नहीं लिखा जाता कि भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी ने सभा को संबोधित किया। इसके बजाय, यह कहा जाता है कि प्रधानमंत्री ने भाजपा के लिए वोट मांगा। इसी तरह, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के संबोधन को भी इसी तरह प्रस्तुत किया जाता है। यह सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री किसी विशेष दल के लिए वोट मांग सकते हैं, जबकि उन्हें देश का प्रधानमंत्री माना जाता है।


यह बहस का विषय हो सकता है कि यह केवल शब्दों का खेल है, लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि शब्दों से अर्थ निर्धारित होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कलेक्टर को जिलाधीश कहा जाने लगा, तो वह जिले का मालिक बन गया। दशकों से यह परंपरा रही है कि चुनावी सभा में प्रधानमंत्री को किसी पार्टी का नेता नहीं लिखा जाता। प्रधानमंत्री चुनावी सभा में यह बताते हैं कि उन्होंने किस राज्य या समुदाय के लिए क्या किया है, जिससे समान अवसर की धारणा प्रभावित होती है।


सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच का यह बारीक अंतर आजादी के बाद से ही मिटने लगा था, लेकिन पिछले दो दशकों में यह प्रक्रिया तेज हो गई है। एक उदाहरण मुफ्त सेवाओं की घोषणा है। कोई भी सरकार जो वित्तीय अनुशासन को समझती है, ऐसी योजनाएं नहीं बना सकती, लेकिन सत्तारूढ़ दल को चुनाव जीतने के लिए ऐसी योजनाओं की आवश्यकता होती है।


दूसरा उदाहरण यह है कि जब विपक्षी पार्टियां किसी संस्था या सरकार को निशाना बनाती हैं, तो जवाब सत्तारूढ़ दल द्वारा दिया जाता है। हाल के दिनों में चुनाव आयोग पर विपक्ष के हमलों का जवाब सत्तारूढ़ दल द्वारा दिया गया है, जबकि चुनाव आयोग को संविधान के अनुसार दोनों पक्षों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।


भारत में पहले भी यही व्यवस्था थी, लेकिन अब सरकार का उपयोग पार्टी के काम के लिए खुलकर किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार का मुख्य उद्देश्य पार्टी को जीत दिलाना है। आम जनता के पैसे से विज्ञापनों पर खर्च किया जाता है, जिससे पार्टी और उसके नेताओं का प्रचार होता है।


आजादी के बाद कई दशकों तक कांग्रेस ने चुनाव नहीं हारे, लेकिन अब सत्तारूढ़ दलों के हारने का सिलसिला शुरू हो गया है। अब एक बार फिर से चुनी हुई सरकारें रिपीट होने लगी हैं, जिसका एक बड़ा कारण यह है कि पूरी सरकारी मशीनरी सत्तारूढ़ दल को जिताने के लिए काम कर रही है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है और इसे रोकने की आवश्यकता है।