भारतीय राजनीति में सत्ता की निरंतरता: क्या एंटी इन्कम्बैंसी का प्रभाव खत्म हो गया है?

सत्ता में वापसी का नया ट्रेंड
यह महत्वपूर्ण है कि हम यह समझें कि वर्तमान में सरकारों के हारने की दर क्यों घट रही है। क्या एंटी इन्कम्बैंसी, जो भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण कारक रहा है, अब अप्रासंगिक हो गया है? ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि हाल के चुनावों में सरकारें लगातार जीत रही हैं। सत्ता में रहने वाली पार्टियाँ किसी न किसी तरीके से चुनाव जीतने में सफल हो रही हैं।
पहले, एक सरकार के पांच साल पूरे करने के बाद उसके खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी का प्रभाव इतना अधिक होता था कि वह चुनाव हार जाती थी। आजादी के बाद के पहले चार दशकों में, भारतीय राजनीति इसी सिद्धांत पर आधारित थी। लेकिन अब, संचार के नए माध्यमों और युवा मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ, यह धारणा बदल गई है। अब युवा मतदाता सरकारों को अधिक समय तक सहन नहीं कर रहे हैं।
नरेंद्र मोदी का लगातार जीतना
केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने लगातार तीसरी बार जीत हासिल की है, जो 1971 के बाद पहली बार हुआ है। राज्यों में भी इसी तरह के परिणाम देखने को मिले हैं। उदाहरण के लिए, केरल में 1957 के बाद पहली बार सत्तारूढ़ दल ने लगातार दूसरी बार जीत दर्ज की। उत्तराखंड में भी ऐसा ही हुआ, जहां सत्तारूढ़ दल ने फिर से सत्ता में वापसी की।
झारखंड में पहली बार किसी पार्टी ने लगातार दूसरी बार चुनाव जीता और पहले से अधिक सीटें हासिल कीं। पंजाब में भी ऐसा ही हुआ था। बिहार में पिछले 20 वर्षों से एक ही व्यक्ति का शासन है, जबकि ओडिशा में 24 वर्षों तक एक ही पार्टी का राज रहा।
विपक्ष की चुनौतियाँ
हरियाणा में भाजपा ने लगातार तीसरी बार सरकार बनाई है। महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में हारने के बावजूद, भाजपा ने विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। कर्नाटक में कांग्रेस ने भी लगातार तीसरी बार सरकार बनाई। हालांकि, कुछ राज्यों में सत्ता परिवर्तन हुआ है, लेकिन अधिकांश राज्यों में सरकारों की पुनरावृत्ति का एक स्पष्ट ट्रेंड देखने को मिल रहा है।
विपक्षी पार्टियों के लिए चुनाव जीतना लगातार कठिन होता जा रहा है। एक कारण यह है कि सत्तारूढ़ दल चुनाव से पहले विभिन्न योजनाओं के तहत लोगों को नकद सहायता प्रदान करते हैं, जिससे मतदाता प्रभावित होते हैं।
राजनीति का नया स्वरूप
अब देश की राजनीति केवल सत्ता से परिभाषित हो रही है। पहले नेता विचारधारा के आधार पर राजनीति करते थे, लेकिन अब विचारधारा का महत्व कम हो गया है। सत्तारूढ़ दलों ने पार्टी और सरकार के बीच की सीमाओं को मिटा दिया है। अब पार्टी ही सरकार है और सरकार ही पार्टी है।
सरकारें चुनाव जीतने के लिए सभी संसाधनों का उपयोग करने में संकोच नहीं कर रही हैं। सत्ता का दुरुपयोग करके चुनावी संसाधनों को जुटाया जा रहा है। इससे विपक्षी पार्टियों को कमजोर किया जा रहा है।
भविष्य की चुनौतियाँ
इस प्रकार, विपक्ष के लिए चुनावी मैदान में बराबरी का कोई स्थान नहीं रह गया है। अगर चुनाव को एक सौ मीटर की दौड़ मानें, तो सत्तारूढ़ दल विपक्ष से 50 मीटर आगे होता है। हालांकि, जो सत्तारूढ़ दल चुनाव हार रहे हैं, उनमें एक कमी है कि वे चुनाव जीतने के लिए सत्ता का सही तरीके से उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
चुनाव जीतने को राजनीति का एकमात्र उद्देश्य बनाना और इसके लिए हर संभव उपाय अपनाना लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को कमजोर कर रहा है। लंबे समय में, इससे देश को गंभीर नुकसान हो सकता है।