भारतीय राजनीति में सर्वोच्च नेता की प्रवृत्ति का उदय

सर्वोच्च नेता की अवधारणा
भारतीय राजनीति में एक नई प्रवृत्ति उभर रही है, जो अब एक संस्थागत रूप ले चुकी है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने इसे एक सिद्धांत में परिवर्तित किया है, जिसे अब अन्य राजनीतिक दल भी अपनाने लगे हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, चुनाव में उम्मीदवार नहीं, बल्कि एक प्रमुख नेता चुनाव लड़ता है, जबकि दूसरा बड़ा नेता चुनावी रणनीति तैयार करता है। हर सीट पर उम्मीदवार उस प्रमुख नेता के नाम पर वोट मांगते हैं, और चुनावी रणनीति एक नेता द्वारा बनाई जाती है। उदाहरण के लिए, भाजपा में लोकसभा या राज्य विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी का नाम प्रमुख होता है, जबकि अमित शाह रणनीति का निर्माण करते हैं.
कांग्रेस में भी यही स्थिति
कांग्रेस में भी राहुल गांधी के नाम पर चुनाव लड़ा जाता है। चाहे पार्टी जीतती हो या हारती हो, चुनाव में राहुल गांधी का नाम ही प्रमुख रहता है। पहले, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में करिश्माई नेता होते थे, जिनकी अपनी पहचान और महत्व होता था। लेकिन अब यह स्थिति बदल गई है। अब कांग्रेस और भाजपा के नेता पार्टी आलाकमान को अपना माई-बाप मानते हैं, और यह केवल औपचारिकता नहीं है।
प्रादेशिक पार्टियों में भी बदलाव
यह प्रवृत्ति प्रादेशिक पार्टियों में भी गहराई से समाई हुई है। उदाहरण के लिए, तेजस्वी यादव ने कहा है कि वे बिहार की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, जबकि उनकी पार्टी की सीटें सीमित हैं। यह दर्शाता है कि अब उम्मीदवारों का चुनाव केवल एक नेता के नाम पर किया जा रहा है।
चुनावों में उम्मीदवारों की भूमिका
चुनावों में उम्मीदवारों की भूमिका अब सीमित होती जा रही है। उन्हें केवल बैकरूम से निर्देश दिए जाते हैं कि उन्हें क्या बोलना है और किस एजेंडे को संबोधित करना है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है, क्योंकि इससे जनता से जुड़े मजबूत नेताओं की कमी हो सकती है।
लोकतंत्र पर प्रभाव
इस प्रवृत्ति का एक बड़ा खतरा यह है कि नाकारा नेताओं की संख्या बढ़ सकती है, जिससे प्रशासनिक तंत्र में भी बदलाव आएगा। इससे आम आदमी के लिए व्यवस्था में स्थान कम हो जाएगा। यह सिद्धांत सर्वोच्च नेता को एक अवतार मानने की धारणा को मजबूत करेगा, जो अंततः तानाशाही की ओर ले जा सकता है।