भारतीय संसद में विपक्ष की भूमिका और उपाध्यक्ष का मुद्दा
भारतीय संसद में विपक्ष की स्थिति
भारतीय जनता पार्टी के शासन में संविधान के नियमों और विधायी परंपराओं की अनदेखी एक सामान्य बात बन गई है। महाराष्ट्र में यह स्पष्ट हो रहा है कि नेता प्रतिपक्ष के लिए 10 प्रतिशत सीटों का कानून नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को मान्यता देने का नियम है, जो कि परंपरा के अनुसार भी है। हालांकि, भाजपा न तो कानून का पालन कर रही है और न ही परंपराओं का। यह स्थिति भारतीय संसद में भी देखी जा रही है। पिछले दो लोकसभाओं में कोई मुख्य विपक्षी पार्टी नहीं रही और न ही कोई नेता प्रतिपक्ष। 16वीं लोकसभा में कांग्रेस को 44 और 17वीं लोकसभा में 52 सीटें मिलीं, लेकिन सरकार या आसन ने इसे आवश्यक नहीं समझा कि भारत की संसद में एक नेता प्रतिपक्ष होना चाहिए। 18वीं लोकसभा में कांग्रेस को 99 सीटें मिलीं, जिसके बाद राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष के रूप में स्वीकार किया गया।
उपाध्यक्ष का चुनाव और परंपरा
इसी तरह, लगातार दूसरी लोकसभा में उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ है। 17वीं लोकसभा के पांच साल के कार्यकाल में सरकार ने उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं कराया, और 18वीं लोकसभा का डेढ़ साल का कार्यकाल भी पूरा हो गया है, जिसमें चुनाव की कोई संभावना नहीं दिख रही है। पहले यह परंपरा थी कि किसी विपक्षी पार्टी के नेता को उपाध्यक्ष बनाया जाता था, लेकिन अब यह बदल गया है। अब सत्तापक्ष की ओर से किसी ऐसे दल को यह पद दिया जाता है जो सरकार में नहीं है लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रति सहानुभूति रखता है। भाजपा ने 16वीं लोकसभा में अन्ना डीएमके को उपाध्यक्ष का पद दिया था, लेकिन 17वीं और 18वीं लोकसभा में ऐसा नहीं किया गया। अगले साल राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। यदि वे उच्च सदन में नहीं लौटते हैं, तो संभव है कि वहां भी बिना उप सभापति के कामकाज चलता रहे। नए उप राष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन शीतकालीन सत्र में अधिकतर समय आसन पर रहते हैं। राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद भी एक पतले धागे से बंधा हुआ है। 243 सदस्यों वाले सदन में कांग्रेस के 27 सदस्य हैं। यदि उनकी संख्या में थोड़ी कमी आती है, तो उन्हें नेता प्रतिपक्ष का पद भी नहीं मिलेगा।
