महात्मा गांधी: नोबल शांति पुरस्कार से वंचित, फिर भी दुनिया के प्रेरणास्त्रोत

महात्मा गांधी का योगदान
Mahatma Gandhi: महात्मा गांधी, जो अहिंसा और सत्याग्रह के प्रतीक माने जाते हैं, को उनके शांतिपूर्ण आंदोलनों और भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के लिए विश्वभर में जाना जाता है। हालांकि, वे कभी भी नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित नहीं हुए, जो न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि वर्षों से बहस का विषय भी बना हुआ है।
नोबल पुरस्कार की नामांकन प्रक्रिया
महात्मा गांधी को 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 में नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। फिर भी, हर बार उन्हें यह प्रतिष्ठित पुरस्कार नहीं मिल सका। नोबल समिति की चुप्पी और ऐतिहासिक संदर्भ ने इस प्रश्न को और जटिल बना दिया है कि जब पूरी दुनिया गांधी को शांति का प्रतीक मानती है, तो उन्हें यह पुरस्कार क्यों नहीं मिला?
नोबल पुरस्कार का महत्व
नोबल पुरस्कार, जो स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबल की वसीयत के अनुसार 1901 में स्थापित हुआ, दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है। यह पुरस्कार भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, साहित्य, शांति और अर्थशास्त्र में दिया जाता है। भारत से अब तक 9 व्यक्तियों को विभिन्न क्षेत्रों में यह सम्मान प्राप्त हुआ है, लेकिन महात्मा गांधी का नाम इस सूची में नहीं होना आश्चर्यजनक है।
महात्मा गांधी की पांच बार नामांकन
मोहनदास करमचंद गांधी को 1937 से 1948 के बीच पांच बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। यह उनके वैश्विक प्रभाव और अहिंसा आधारित आंदोलनों की स्वीकृति को दर्शाता है। फिर भी, उन्हें यह पुरस्कार क्यों नहीं मिला, यह आज भी एक अनसुलझा प्रश्न है।
नोबल समिति की दृष्टि
नोबल शांति पुरस्कार नॉर्वे की नोबल समिति द्वारा दिया जाता है, जिसका झुकाव उस समय यूरोपीय और अमेरिकी विचारधाराओं की ओर अधिक था। 1960 तक, यह पुरस्कार मुख्य रूप से यूरोपीय और अमेरिकी व्यक्तियों को ही दिया जाता था। इसलिए, यह माना जाता है कि समिति गांधी जैसे गैर-यूरोपीय नेता के आंदोलन की गहराई को पूरी तरह से नहीं समझ पाई।
ब्रिटेन-नॉर्वे संबंधों का प्रभाव
गांधी का संघर्ष ब्रिटिश राज के खिलाफ था। नॉर्वे और ब्रिटेन के बीच मजबूत राजनीतिक संबंधों के कारण, समिति पर यह दबाव हो सकता था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के विरोधी नेता को सम्मानित न करे। इसके अलावा, समिति को यह चिंता भी थी कि गांधी के आंदोलनों में "पूर्ण अहिंसा" का पालन नहीं हुआ और वे राजनीति से जुड़े रहे, जबकि समिति आमतौर पर राजनीतिक तटस्थता को प्राथमिकता देती थी।
1948 में हत्या के कारण मरणोपरांत पुरस्कार का अभाव
गांधी जी को 1948 में फिर से नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था, लेकिन 30 जनवरी 1948 को उनकी हत्या हो गई। नोबल समिति के नियमों के अनुसार, मरणोपरांत पुरस्कार नहीं दिया जाता, जिससे गांधी जी को यह सम्मान नहीं मिल सका।
नोबल समिति की स्वीकार्यता
2006 में, नॉर्वेजियन नोबल समिति ने स्वीकार किया कि महात्मा गांधी को शांति पुरस्कार न देना उनकी सबसे बड़ी भूलों में से एक था। समिति के पूर्व अध्यक्ष गेर लुंडेस्टैड ने कहा, "गांधी जी को सम्मानित न करना नोबल पुरस्कार के इतिहास की एक सबसे बड़ी गलती थी।" 1989 में जब दलाई लामा को यह पुरस्कार दिया गया, तो समिति ने इसे "आंशिक रूप से महात्मा गांधी की स्मृति को श्रद्धांजलि" बताया।
गांधी का वैश्विक प्रभाव
हालांकि गांधी जी को नोबल शांति पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन उनके विचारों और सिद्धांतों ने विश्वभर के नेताओं को प्रेरित किया। मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और दलाई लामा जैसे वैश्विक नेताओं ने गांधी जी के अहिंसा और सत्याग्रह से मार्गदर्शन लिया। गांधी आज भी एक ऐसे विचार के रूप में जीवित हैं, जो बिना हथियारों के दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है।