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लोकतंत्र की वास्तविकता: क्या यह केवल एक दिखावा है?

इस लेख में लोकतंत्र की वास्तविकता पर चर्चा की गई है, जिसमें यह बताया गया है कि क्या यह वास्तव में लोगों की आवाज है या केवल एक दिखावा। नितिन गडकरी के विचारों से लेकर चुनावों में खर्च और नेताओं की स्वार्थी प्रवृत्तियों तक, यह लेख लोकतंत्र की खामियों और सुधार की आवश्यकता पर जोर देता है। क्या लोकतंत्र केवल एक अल्पतंत्रीय शासन बनकर रह गया है? जानें और समझें इस महत्वपूर्ण विषय को।
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लोकतंत्र की वास्तविकता: क्या यह केवल एक दिखावा है?

लोकतंत्र का स्वरूप

लोकतंत्र एक ऐसा शासन प्रणाली है जो नागरिकों को हर चार या पांच साल में केवल यह चुनने की अनुमति देता है कि वे किसके हाथों बेवकूफ बनना चाहते हैं। इसके अलावा, अधिकांश निर्णय कुछ गिने-चुने लोग ही लेते हैं, जो अक्सर चुनावी चालाकियों और लफ्फाजी में माहिर होते हैं। इसलिए, जो लोग वास्तव में जनहित की चिंता करते हैं, उन्हें लोकतंत्र के गुणगान करने के बजाय, इसकी कमियों को दूर करने, शासकों को जवाबदेह बनाने और योग्यताओं को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।


नेताओं की सोच

हाल ही में भाजपा के नेता नितिन गडकरी ने कहा, 'जो लोगों को सबसे ज्यादा मूर्ख बना सकता है, वही सबसे अच्छा नेता हो सकता है।' यह लोकतंत्र की सच्चाई को दर्शाता है। नेता अक्सर जनता को उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ साधते हैं।


लोकतंत्र की आलोचना

हेनरी लुई मेंकेन की पुस्तक 'नोट्स ऑन डेमोक्रेसी' में अमेरिकी लोकतंत्र की इसी वास्तविकता का उल्लेख है। कई विद्वानों ने पश्चिमी लोकतंत्रों की इसी प्रवृत्ति को उजागर किया है।


चुनावों में खर्च

आजकल, सांसद और विधायक चुनावों में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य चुनावी खर्च की वसूली करना होता है। इसे रोकने के बजाय, नेताओं ने यह धारणा बना दी है कि यह असंभव है।


राजनीतिक व्यवस्था की विफलता

राजनीतिक पदों पर केवल योग्य और ईमानदार व्यक्तियों को लाना संभव है, लेकिन यह तब तक नहीं होगा जब तक कि नेता अपनी स्वार्थी प्रवृत्तियों से ऊपर नहीं उठते।


जनता की स्थिति

जनता को हमेशा दोषी ठहराया जाता है, जबकि असली समस्या नेताओं की है। लोकतंत्र में, नेताओं की छवि को बनाए रखने के लिए जनता को भ्रमित किया जाता है।


लोकतंत्र का असली चेहरा

इस प्रकार, लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली बन गई है जो लोगों को बरगलाकर सत्ता में बने रहने की प्रतियोगिता है। प्लेटो से लेकर आधुनिक दार्शनिकों ने इसे 'मूर्खों का शासन' कहा है।


निष्कर्ष

इसलिए, लोकतंत्र की खामियों को सुधारने का प्रयास करना अधिक महत्वपूर्ण है। अन्यथा, यह केवल एक अल्पतंत्रीय शासन बनकर रह जाएगा, जो लोगों को चार या पांच साल में एक बार केवल यह तय करने की अनुमति देता है कि वे किसके हाथों बेवकूफ बनना चाहते हैं।