विपक्ष की एकता: उप राष्ट्रपति चुनाव में मिली सीख

विपक्ष की एकजुटता का महत्व
यह सवाल थोड़ा अजीब लग सकता है कि जब विपक्षी दलों के साझा उम्मीदवार चुनाव में हार गए, तो उन्हें क्या हासिल हुआ? लेकिन यह सच है कि विपक्ष ने इस चुनाव से एकजुटता में मजबूती पाई है। विचारधारा की लड़ाई का नैरेटिव बना रहा और गठबंधन की डोर ने पार्टियों को मजबूती से बांधे रखा। मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बाद यह विपक्ष की एकता का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा था। संसद के मानसून सत्र के बाद यह सवाल उठ रहा था कि क्या यह एकता आगे की राजनीति में भी दिखाई देगी।
मानसून सत्र में एकता
मानसून सत्र के दौरान एसआईआर पर सभी पार्टियों में एकजुटता बनी रही। सभी दलों को यह समझ में आया कि इस मुद्दे पर उन्हें एकजुट होकर लड़ाई लड़नी है। इसके बाद उप राष्ट्रपति चुनाव ने भी विपक्ष को एकजुट रखा। किसी भी दल ने एनडीए के उम्मीदवार का समर्थन करने की घोषणा नहीं की, जो कि एक महत्वपूर्ण संकेत है।
पिछले चुनावों की तुलना
इससे पहले, 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन किया था। झारखंड में कांग्रेस के कई विधायकों ने विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के बजाय द्रौपदी मुर्मू को वोट दिया। इस बार भी ऐसी संभावनाएं थीं, लेकिन डीएमके और उसकी सहयोगी पार्टियों ने राधाकृष्णन का समर्थन नहीं किया। यह महत्वपूर्ण है कि विपक्षी गठबंधन को 40% वोट मिले और जीत का अंतर केवल 152 वोट का रहा।
विचारधारा की लड़ाई
इसका मतलब यह है कि चुनाव विचारधारा और गठबंधन की राजनीति पर केंद्रित रहा। न तो क्षेत्रीयता हावी हुई और न जाति का मुद्दा। विपक्ष बार-बार यह कहता रहा है कि भाजपा के खिलाफ लड़ाई विचारधारा की है। राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेता भाजपा और आरएसएस का जिक्र करते हैं ताकि विचारधारा की लड़ाई का नैरेटिव स्थापित किया जा सके।
उप राष्ट्रपति चुनाव की रणनीति
विपक्ष के उम्मीदवार जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी को एक सेकुलर और संविधान बचाने वाले व्यक्ति के रूप में पेश किया गया। उप राष्ट्रपति चुनाव में किसी ने क्षेत्रीय मुद्दों पर मतदान नहीं किया। विपक्ष ने अपनी रणनीति में कमी दिखाई, क्योंकि उसने पहले उम्मीदवार तय करने का प्रयास नहीं किया। अगर विपक्ष पहले अपना उम्मीदवार घोषित करता, तो भाजपा को अपनी रणनीति बदलनी पड़ती।
भविष्य की रणनीति
इस बार विपक्ष की कोई स्पष्ट रणनीति नहीं दिखी। एनडीए ने तमिलनाडु के चुनाव को ध्यान में रखते हुए वहां से उम्मीदवार उतारा, जबकि विपक्ष ने तेलंगाना से उम्मीदवार चुना। अगर विपक्ष पहले उम्मीदवार घोषित करता और अपनी रणनीति के अनुसार उम्मीदवार चुनता, तो उसे अधिक लाभ हो सकता था। फिर भी, विपक्ष चुनाव हारकर भी अपनी एकता बनाए रखने में सफल रहा।