शशि थरूर और नरेंद्र मोदी: सिंदूर की राजनीति का नया अध्याय

थरूर का राजनीतिक सफर
शशि थरूर का नाम हमेशा सुर्खियों में रहता है। वे चौधरी देवीलाल के 'काले कौवों' के प्रतिनिधि माने जाते हैं। यह बुद्धिजीवियों का समूह है, जो गुलामी के डीएनए में रचा-बसा है। ये लोग दिल्ली की सत्ता के लिए हमेशा तैयार रहते हैं, चाहे वह अंग्रेजों की हो या वर्तमान प्रधानमंत्रियों की। देश में बुद्धि का महत्व कब है, जो यह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बन सके? यह समूह कभी सोनिया गांधी की प्रशंसा करता है, तो कभी नरेंद्र मोदी के चरणों में झुकता है। पहले ये समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की बातें करते थे, अब भगवा रंग में रंगकर मोदी के गुणगान में जुट गए हैं।
सिंदूर का नया प्रतीक
शशि थरूर को 140 करोड़ लोगों की बुद्धि का प्रतिनिधि मानते हुए, उन्हें हमारी सिंदूर सभ्यता का ब्रांड एंबेसडर कहा जा सकता है। दुनिया की अन्य सभ्यताएं 'सिंदूर' से अनजान हैं। यह पहला मौका है जब थरूर और मोदी की जोड़ी सिंदूर को वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत कर रही है। आश्चर्य नहीं होगा यदि थरूर इस विषय पर एक किताब भी लिखें।
मोदी की उपलब्धियां
मोदी की 'सिंदूर' की राजनीति ने बुद्धिजीवियों को 'कैटल क्लास' में बदल दिया है। पिछले ग्यारह वर्षों में, मोदी ने कितने प्रगतिशील विचारकों को अपनी विचारधारा में ढाल लिया है। प्रधानमंत्री बनने के बाद, उन्होंने उन बुद्धिजीवियों को पालतू बना लिया है, जो पहले उनके खिलाफ थे।
थरूर का जीवन
थरूर ने जीवन में बहुत कुछ हासिल किया है। उन्हें शानदार विरासत और शिक्षा मिली है। संयुक्त राष्ट्र में काम करने का अनुभव भी है। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने उन्हें सांसद बनाया, लेकिन अब सत्ता बदलने के बाद, वे भी सांप्रदायिकता के खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं।
भय और भूख का सामना
थरूर अपनी पत्नी की मौत की जांच के डर में जी रहे हैं। सत्तर साल की उम्र में भय में जीना कितना कठिन है। हम हिंदू, एक ओर बुद्धि से सिंदूर की राजनीति कर रहे हैं, और दूसरी ओर भूख और भय में जी रहे हैं।
इतिहास का पुनरावलोकन
भले ही कोई इसे न माने, लेकिन यह सच है कि ऑपरेशन सिंदूर जैसे प्रयासों के बावजूद, हमारी मानसिकता गुलामी, भय और भक्ति से भरी हुई है। इतिहास वही बनेगा, जो पहले रहा है।