शशि थरूर का आपातकाल पर लेख: कांग्रेस के लिए एक चुनौतीपूर्ण सवाल

आपातकाल पर थरूर का विश्लेषण
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने हाल ही में आपातकाल पर एक गहन लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने न केवल अतीत की गलतियों को उजागर किया है, बल्कि पार्टी के नेतृत्व के साथ अपने मतभेदों को भी और बढ़ा दिया है। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लागू किया गया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है। थरूर ने इस लेख में उस समय की ज्यादतियों, नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन और राजनीतिक दमन का गहराई से विश्लेषण किया है.
थरूर के अनुभव और चिंताएँ
अपने अनुभव साझा करते हुए, थरूर ने बताया कि जब आपातकाल की घोषणा हुई, तब वे भारत में थे और बाद में अमेरिका उच्च शिक्षा के लिए चले गए। उन्होंने कहा कि भारत का जीवंत सार्वजनिक जीवन अचानक चुप्पी में बदल गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के फैसले पर उन्होंने चिंता जताई और मीडिया, विपक्ष और नागरिकों की गिरफ्तारी को लोकतंत्र पर गंभीर चोट बताया।
My column for a global audience on the lessons for India and the world of the Emergency, on its 50th anniversary @ProSyn https://t.co/QZBBidl0Zt
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) July 9, 2025
थरूर ने स्वर्गीय संजय गांधी की भूमिका को भी उजागर किया, जिनके जबरन नसबंदी अभियान और झुग्गी-बस्तियों के विध्वंस ने गरीबों को निशाना बनाया। उन्होंने कहा कि "व्यवस्था" और "अनुशासन" की आड़ में की गई ये कार्रवाइयां राज्य द्वारा की गई हिंसा का प्रतीक थीं.
आपातकाल के सबक
थरूर ने लिखा कि इमरजेंसी के सबक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उन्होंने तीन बड़े निष्कर्ष प्रस्तुत किए:
1. स्वतंत्र प्रेस और सूचना की आज़ादी अनिवार्य है.
2. न्यायपालिका को कार्यपालिका के अतिक्रमण से बचाने वाला प्रहरी बनना होगा.
3. एक अति-आत्मविश्वासी कार्यपालिका विधायी बहुमत के साथ मिलकर लोकतंत्र के लिए खतरा बन सकती है.
उन्होंने चेताया कि आज का भारत भले ही 1975 का भारत नहीं है, लेकिन सत्ता के केंद्रीकरण, आलोचना को देशद्रोह ठहराने और संवैधानिक संस्थाओं की उपेक्षा जैसे तत्व आज भी मौजूद हैं। थरूर ने यह भी लिखा कि इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ आत्मविश्लेषण का अवसर है। यह दौर हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र कमजोर हो सकता है अगर हम उसकी रक्षा में चूक करें।
कांग्रेस के लिए असहज सवाल
यह लेख कांग्रेस के लिए असहज प्रश्न खड़े करता है। दशकों से पार्टी ने संजय गांधी की भूमिका और इंदिरा गांधी की मंज़ूरी से हुई ज्यादतियों पर चुप्पी साध रखी थी। थरूर का लेख उसी मौन पर सीधा प्रहार करता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि जब थरूर का कांग्रेस नेतृत्व से संबंध तनावपूर्ण चल रहा है, तब उन्होंने ये लेख लिखा है। हाल ही में उन्होंने पहलगाम आतंकी हमले के बाद सरकार के जवाबी ऑपरेशन 'सिंदूर' की खुलकर तारीफ की थी। इससे कांग्रेस में असहजता बढ़ गई थी.
ऑपरेशन सिंदूर पर थरूर की सराहना
थरूर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत की रणनीतिक स्थिति का मजबूती से समर्थन करते दिखे हैं। उन्होंने विपक्षी दल के रुख से अलग जाकर ऑपरेशन सिंदूर के लिए सरकार की कूटनीति की सराहना की। कांग्रेस जहां बाद में युद्धविराम के कारणों पर सरकार से जवाब मांगने लगी, वहीं थरूर सरकार के पक्ष में खड़े रहे।
इस पृष्ठभूमि में, इमरजेंसी पर लिखा उनका लेख केवल ऐतिहासिक आलोचना नहीं, बल्कि पार्टी के मौजूदा नैतिक दृष्टिकोण पर भी सवाल उठाता है। थरूर ने यह स्पष्ट किया है कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं चलता, बल्कि संस्थागत संतुलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के निरंतर संरक्षण से ही उसका भविष्य सुरक्षित रहता है.