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संविधान की प्रस्तावना में बदलाव: क्या 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाना सही है?

संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाने की बहस फिर से गरमाई है। क्या यह बदलाव सही है? जानें इस मुद्दे की पृष्ठभूमि, इंदिरा गांधी के समय के निर्णय और वर्तमान राजनीतिक प्रतिक्रियाएं। क्या राहुल गांधी इस बदलाव को स्वीकार करेंगे? इस लेख में जानें सभी पहलू।
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संविधान की प्रस्तावना में बदलाव: क्या 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाना सही है?

संविधान की प्रस्तावना में बदलाव की आवश्यकता

अब समय आ गया है कि हम संविधान निर्माताओं का सम्मान करते हुए भारत के मूल चरित्र के अनुरूप प्रस्तावना को पुनर्स्थापित करें, अर्थात्धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को हटाया जाए। विपक्ष के नेता राहुल गांधी इस विचार को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या राहुल यह कहना चाहते हैं कि जिन संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को मूल संविधान में नहीं रखा, वे मनुस्मृति के समर्थक थे?


इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने पर, संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने की चर्चा फिर से शुरू हुई है। 42वें संशोधन के दौरान, जब विपक्ष जेल में था, तब यह संशोधन पारित किया गया था। इस संशोधन ने संविधान की संरचना को बदल दिया और चुनाव स्थगित कर दिए। जनता ने मार्च 1977 में इस तानाशाही का विरोध किया और इंदिरा गांधी को चुनाव में हराया।


आपातकाल के दौरान, इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े। यह तुष्टिकरण की राजनीति का हिस्सा था। इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनाव जीता, लेकिन वास्तविकता यह थी कि उनकी सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए।


इमरजेंसी के बाद, यह मुद्दा बार-बार उठता रहा है कि संविधान की प्रस्तावना को उसके मूल रूप में बहाल किया जाए। 44वें संशोधन के दौरान, कई बदलावों को वापस लाया गया, लेकिन प्रस्तावना में बदलाव को ठीक नहीं किया गया। यदि यह किया गया होता, तो आज इस विषय पर बहस नहीं होती।


भारतीय जनता पार्टी समय-समय पर इस मुद्दे को उठाती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी मंशा मूल प्रस्तावना को बहाल करने की है। हाल ही में, संसद की नई इमारत में सांसदों को संविधान की मूल प्रति दी गई, जिसमें संशोधित प्रस्तावना भी शामिल थी। विपक्ष ने इसका विरोध किया, लेकिन सरकार ने इसे नजरअंदाज किया।


राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के नेता दत्तात्रेय होसबाले ने इमरजेंसी के दौरान संविधान में बदलाव की चर्चा की और कहा कि अब समय है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाकर मूल प्रस्तावना को बहाल किया जाए। केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इस विचार का समर्थन किया।


संविधान निर्माताओं ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को प्रस्तावना में शामिल नहीं किया था। संविधान सभा में कई बार इस पर चर्चा हुई, लेकिन हर बार इसे खारिज कर दिया गया। यह स्पष्ट है कि ये शब्द भारतीय अवधारणा के अनुकूल नहीं हैं।


डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि राज्य की नीति और समाज का संगठन लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार तय करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इंदिरा गांधी ने अपने पिता की बातों को नजरअंदाज करते हुए प्रस्तावना में बदलाव किया। अब समय आ गया है कि हम संविधान निर्माताओं का सम्मान करते हुए मूल प्रस्तावना को बहाल करें। राहुल गांधी को यह बात स्वीकार नहीं हो रही है क्योंकि इससे उनकी तुष्टिकरण की राजनीति को नुकसान होगा।