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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: राष्ट्रपति के 14 सवालों पर आज आएगा निर्णय

आज सुप्रीम कोर्ट एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाने जा रहा है, जो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा प्रस्तुत 14 संवैधानिक प्रश्नों पर आधारित है। यह मामला राज्यपालों और राष्ट्रपति की विधेयकों पर कार्रवाई की समयसीमा और विवेकाधीन शक्तियों से संबंधित है। इस निर्णय का प्रभाव केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों पर पड़ेगा। क्या न्यायपालिका कार्यपालिका को समयसीमा निर्धारित कर सकती है? जानें इस ऐतिहासिक फैसले के बारे में और अधिक जानकारी के लिए पूरा लेख पढ़ें।
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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: राष्ट्रपति के 14 सवालों पर आज आएगा निर्णय

महत्वपूर्ण संवैधानिक मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला


नई दिल्ली: आज भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाने जा रही है। यह निर्णय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा प्रस्तुत 14 संवैधानिक प्रश्नों पर आधारित है, जो राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर कार्रवाई की समयसीमा और विवेकाधीन शक्तियों से संबंधित हैं। इस पीठ का नेतृत्व चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई कर रहे हैं, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस. चंदूरकर शामिल हैं।


सुप्रीम कोर्ट में मामला क्यों पहुंचा?

यह मामला सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया निर्णय से उत्पन्न हुआ, जिसमें अदालत ने कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति सदन से पारित विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक निर्णय नहीं रख सकते। अदालत ने अधिकतम तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की थी। राष्ट्रपति ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह संविधान में वर्णित कार्यपालिका की शक्तियों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप प्रतीत होता है।


इसी संदर्भ में राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से 14 बिंदुओं पर मार्गदर्शन मांगा, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि क्या वे विधेयकों को अपनी विवेकाधीन शक्तियों के तहत लंबित रख सकते हैं और न्यायपालिका इन पर समयसीमा निर्धारित कर सकती है या नहीं।


सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल का आदेश

अप्रैल में जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने कहा था कि राज्यपाल को किसी भी विधेयक पर तीन महीने में निर्णय लेना अनिवार्य है, चाहे मंजूरी दें, रोकें या राष्ट्रपति को भेजें। यदि विधानमंडल किसी विधेयक को दोबारा पारित कर भेजता है, तो उस पर एक महीने के भीतर फैसला लेना आवश्यक है। इसी तरह राष्ट्रपति को भी गवर्नर द्वारा भेजे गए बिलों पर तीन महीने में निर्णय देना चाहिए। यही आदेश राष्ट्रपति ने संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन मानते हुए सुप्रीम कोर्ट में औपचारिक रूप से रेफरेंस भेजा।


राज्यों का दृष्टिकोण

तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करते हुए कहा कि गवर्नर का लगातार देरी करना संघीय ढांचे के खिलाफ है। समयसीमा को हटाना राज्यों की स्वायत्तता पर चोट करेगा। गवर्नर संवैधानिक पद हैं, इसलिए विधेयकों पर कार्रवाई में अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा स्वीकार्य नहीं हो सकती।


केंद्र का दृष्टिकोण

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क किया कि सुप्रीम कोर्ट गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं कर सकता। हालांकि, उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि गवर्नर अनिश्चितकाल तक बिल लंबित नहीं छोड़ सकते।


मुख्य प्रश्न और बहस

राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों के जवाब मांगे हैं। इनमें संविधान के अनुच्छेद 200 और 361 की व्याख्या सबसे महत्वपूर्ण है। मुख्य प्रश्न हैं:



  • क्या गवर्नर मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य होते हैं?

  • अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर के निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में हैं या नहीं?

  • क्या सुप्रीम कोर्ट उस जगह समयसीमा तय कर सकती है, जहाँ संविधान ने कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की?

  • क्या अनुच्छेद 361 गवर्नर की कार्रवाई को न्यायालयीय समीक्षा से पूरी तरह बाहर करता है?

  • फैसले से बदल सकता है भारतीय संघवाद का भविष्य

  • आज सुप्रीम कोर्ट जो निर्णय सुनाएगा, उससे कई बड़े मुद्दों पर स्पष्टता मिलेगी:

  • गवर्नर और राष्ट्रपति की वास्तविक संवैधानिक भूमिका क्या है?

  • विधेयकों पर फैसला करने की अधिकतम समयसीमा क्या हो सकती है?

  • क्या न्यायपालिका कार्यपालिका को समयसीमा देने का अधिकार रखती है?


यह निर्णय केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों, गवर्नर की भूमिका और संविधान की व्याख्या पर दूरगामी प्रभाव डालने वाला है। पूरे देश की निगाहें आज इस ऐतिहासिक निर्णय पर टिकी हैं।